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किरण ७-८]
विद्यानन्दका समय
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दिया और मैं अपनेको पूर्ववत् शय्या पर लेटा हुधा ही है। विद्वानोंको चाहिये कि चेहप पर गहरा विचार करके अनुभव करने लगा। परन्तु अभी कुछ मिनिट पहले जो अपने अपने विचारफलको युक्तिके साथ प्रकट करें। यदि अद्भुत दृश्य देखा था और जो दिव्य भाषण सुना था उसकी उन्हें भी उक्त प्रथाकी उपयुक्तता मालूम न दे और के उस याद चिसको बेचैन किये देती थी कि या तो इसे 'स्त्री- को जारी रखने में पुषोंका ही दोष अनुभव करें तो उनकायह जातिका अपमान' कहना चाहिये और या यह कहना कर्तव्य होना चाहिये कि वे पुरुषजातिको इसक्लक तथापाप चाहिये कि वह स्त्रियों पर पुरषोंका अत्याचार' है। अथवा से मुक्त करानेका भरसक प्रयत्न करे। जुगलकिशोर मुख्तार यों कहना होगा कि उसमें दोनोंका ही-अपमान और * यह स्वप्न मुझे अाजसे कोई २१ वर्ष पहले नानौता अत्याचारका--सम्मिश्रण है। विचारोंकी इसी उधेड़बुनमें (जि. सहारनपर ) में पाया था और थाने के बाद ही ११ सवेश होगया और मैं अपना स्वमसमाचार दूसरोंको मई सन १६२४ को वर्तमान रूपमें लिख लिया गया था । सुनाने लगा।
एक-दो पत्रोंम उम ममय इसे प्रकाशित भी किया था। जैसे संभव है कि पाठकोंमेंसे भी कुछ महानुभाव उस दिन्य जुलाई सन् १९२४ के परतारबन्धु' में । अभी इसके अधिक स्त्रीके प्रश्नका अच्छा विचार कर सके और उत्तरमें तीसरे लोकपरिचयमें आने और इसपर गंभीर विचार किये जानेकी ही किसी निर्दोष हेतुका विधान कर सके । इसी लिये स्वप्न और भी अधिक श्रावश्यकता जान पड़ती है। अत: उपयुक्त की यह संपूर्ण घटना भाज पाठकों के सामने रक्खी जाती समझकर श्राज इसे पाठकोके सामने रखा जाना है।
विद्यानन्दका समय
(ले०-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया) मा. विजानन्दने प्राप्तपरीक्षाके अन्तमें 'सत्यवाक्यार्थ- प्राप्तपरीक्षा श्रादिकी रचना १६ ए. टी० के बादकी सिद्धय और युक्त्यनुशासनालङ्कारके अन्तिम श्लोक में होगी। यह निर्विवाद है कि विद्यानदिने सर्वप्रथम विद्या. 'विजयिभिः सत्यवाक्याधिप' शब्दोंका प्रयोग किया है। नन्दमहोदय इसके बाद तत्वाथश्लोकवार्तिक फिर अष्टइन परसे बाबू कामताप्रसादजीका अनुमान है कि विद्या- सहस्री आदि ग्रन्थ रचे हैं, पयोंकि उत्तर ग्रंथों में पूर्वग्रन्धोंक नन्दने अपने समयके राजा राजमलके नामका निर्देश किया उल्लेख पाये जाते हैं। यदि इन तीनों अन्योंका रचनाकाल है जिसकी 'सत्यवाक्य' उपाधि थी और जो विजयादित्यका पांच पांच वर्ष भी माना जाय तो विद्यामदमहोदयकी लड़का था एवं सन् ८१६ के लगभग राज्याधिकारी हुमा रचना ८०१ से ८०५ ए. डी. श्लोकवार्तिककी ८०६ से था। इससे विद्यानन्दका समय ई०८१६ के लगभग होना ८१.ए. डी. और अहमहस्रीकी ८११ से २ ए. चाहिए । न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमारजी२ और प्रो. डी. तक माननी पड़ेगी और विद्यानन्दमहोय जैसे हीरालालजी एम.ए. भी इसी मतका समर्थन करते हैं। विशाल तार्किक अन्धकी रचनाके समय विद्यानन्दकी प्रच. यहां विचारणीय है कि विद्यानन्दने उक्त शब्दोंका प्रयोग स्था यदि कमसे कम ३० वर्षकी भी होतो वे अकलदेव अपने प्रन्यरचनाकालकी अन्तिम कृतियों--प्राप्तपरीक्षा और (७२०-७८० ए.डी.) को भी देख सकते हैं और उनके
और युक्त्यनुशासमालङ्कारमें किया है। इनसे पूर्व रचित सामाशिष्य भी बन सकते हैं परंतु विद्यानंदको अकलंकदेव सत्यार्यश्लोकवार्तिक, प्रष्टसहस्री भादिमें नहीं किया प्रतः का सामाशिष्य न तो पंडितजी स्वीकार करते हैं और न दूसरे यह मानना पदेगा कि स्वार्थश्लोकवार्तिक और असहस्री विद्वान् ही मानते हैं तथा इतिहाससे भी सिर नहीं होता। पादिकी रचना सन् १६के पहले हो चुकी थी और ऐसा मालूम होता है कि विद्यानन्द प्रकलदेवसे कई श्जैनसिद्धान्तभास्कर भाग ३ कि०३०८७ । २ न्या०वि० दशकोंके बाद हुए हैं। एक धापत्ति यह भी उपस्थित होती भा. प्रस्ता. पृ. २४, ३० । ३ अनेकान्त वर्ष ७ कि५-६ है कि विद्यानन्दका अन्यरचनाकाल १६ ए.डी..