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भनेकान्त
[वर्ष ६
करोष माना जाय तो बीरसेनगमी (८२३ए.डी.)के टीका' शब्द भी वही 'म्यायवार्तिकतारपयष्टीका' विद्यानन्द द्वारा परजा और जयपवलामे तथा जिनसेनस्वामीके द्वारा को इष्ट है क्योंकि न्यायवार्तिक पर जो टीम लिखी गई। जयधवला और यादिपुराण में विद्यानन्द या उनके तत्वार्थ- वह अकेली यही टीका है। परेविद्यानन्दमे म्यायवार्तिक लोकवार्तिक (८.६ से १. ए. टी.) श्रादि ग्रंथोंके और उसके कर्ताका म्यायवार्तिक, न्यायवार्तिककार, वार्तिक वाश्योंका उल्लेख होना अनिवार्य और सम्भव था। कोई कार और उद्योतकर नामोसे ही सर्वत्र उल्लेख किया है।' वजह नहीं कि सैकड़ों ग्रंथों और ग्रंथकारों तथा उनके तथा न्यायभाव्य और उसके कर्माका न्यायभाष्य भाष्यकार वाक्योंका उल्लेख करने वाले वीरसेनस्थाम। और जिनसेन और न्यायभाष्यकार २ नामसे निर्देश किया है। तीसरे, स्वामी अपनी विशाल टीकाओं-पवला और जयधवलामें अनुम नसूत्रका त्रिसूत्रीकरण पाचस्पतिमि ने ही किया है। विद्यानन्द विद्यानन्दमहोदय और तवायश्लोकवार्तिक घत: 'न्यायवानिकटीयाकार' पर विद्यानन्दने धाचस्पति जैप विज्ञान महत्वपूर्ण प्रन्यों के नामों को उद्धृत न करें। मिश्र ई. सन् ८४. काही स्पष्टतया नामोल्लेख किया है। अनदेयके तस्वार्थराजधानिकका वीरन और जिनपेन माननीय पशिडतजीने जो यह लिखा है कि प्रा. विद्यानंद
मामीने धबल्ला और जवधवलामें अनेकों जगह खूब उप. ने तत्वार्यश्लोकवार्तिक (पृ.२०६) में न्य यदर्शनके 'पूर्ववत् योग किया है और उसे तस्वार्थ भाग्यके नाम उतिरिक्त भादि अनुमानसूत्रका निरास करते समय केवल भाष्यकार किया है। यदि तस्त्रार्यश्लोकधार्तिक १६ ए. डी.के और वार्किकारका ही मत पूर्वपक्षरूपसे उपस्थित किया है। पहले रचा गया होता तो धवला और जयधनामे उसका न्यायवार्तिकतापर्यटोकाकारके अभिप्रायको अपने पूर्व भी उपयोग होना सम्भव था। तस्वार्थभाष्यके नामोल्लेख परमें शामिल नहीं करते । वाचस्पतिमिश्रने तात्पर्यटीका से भी मालूम होता है कि उस समय सत्त्वार्थ सूत्रपर दिग- है.४१ के लगभग बनाई थी। इससे भी विद्यमान्दके बरपरम्परामें भाज्य या वार्तिक कहा जाने वाला स्वार्थ. उक्त समय (ई.८१६) की पुष्टि होती है। यदि विद्यानन्द वार्तिक या सवार्यवार्तिकभाष्य नामकी टीका ही उपलब्ध का प्रन्यरचनाकाल के बाद होता तो मे हारपर्यभी विद्यानन्दकी तस्वार्यश्लोकवार्तिक मा सम्बार्यश्लोकवार्तिक- टीकाका उल्लेख किये बिना न रहते।" मलू होता है कि भाष्य नामक राका उस समय नहीं बन सकी थी। अन्यथा पंडतजीको कुछ भ्रान्ति हुई है और उनकी दृष्टि न्याय. न्यावृत्ति के लिये तस्वार्थभाष्य' के स्थानम 'तस्वार्थवार्तिक वार्तिकटीकाकार' शब्दपर नहीं गई जान पाती है। अन्यथा भा 'तस्वार्थवार्तिकभाष्य' ही नामोल्लेख किया जाता । इस उपर्युक अपमा निर्णय देने के लिये बाध्य न होते । यह के अतिरिक्त विद्यानन्दस्वामीने तत्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ. उपरोक्त विवेचम और उदरणसं स्पष्ट ही है कि तस्वार्थ२.६) में न्यायवार्तिकटीकाकार वाचस्मतिमिश्रका 'न्याय- श्लोकवार्तिक में न्यायवार्तिकनारपर्यटीकाकार अभिप्रामका भी बार्तिकटीकाकार' शनों द्वारा नामोल्लेख किया है। जैसा निरसन किया गया है। ऐसी हालत में तस्वार्थश्लोकवार्तिककी किनिम्न उदरसे प्रकट है
रचना न्यायवार्तिकतापर्यटीका (2001)के बादकी सिब तदनेन न्यायवातिकटीकाकारव्याख्यानमनुमान- होती है और इस तरह विधानम्मका ग्रंथ-रचनाकानी. सूत्रस्य त्रिसत्रीकरणेन प्रत्याख्याते प्रतियत्तव्यमिति। .८१६न होकर ३५ के बगभग प्रारंभ होना चाहिए।
त० श्लोपृ.२०६। इस समयको माननेमे विद्यानन्दको अकलंकदेव (७२० से यहां स्पष्ट तौरसे 'न्यायवार्तिकटीकाकार' पाचस्पति ए.पी.) का साक्षात शिष्य होने, अवता ८१६ मिश्रका नामोल्लेख हुमाहै जिनका समय उनके 'भ्याय- ए.डी.) जयपवला (८३७ ए.टी.) और भादि पुराण सूचीनिवन्ध प्रन्धरसे ए.सी. सर्वसम्मत माना (८३८ ए.टी. में उनके उल्लेखकी संभावना करने आदि भाता है। यद्यपि योतकरके न्यायवासिकपर वाचस्पतिमिश्र का भी प्रसङ्ग नहीं पाता है। ने जो टीका लिखी है वह तात्पर्षटीका' या 'न्याययार्तिक- देखो, पृ० २०६, २८४, २८७, २८६ आदि । तापटीका' के नामसे अभिहितोतयापि भ्यायवार्तिक. '२ देखो, पृ. २८४, २५, २६७ आदि ।