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जगत्-रचना (लेखक-श्री कर्मानन्द)
यह जगत् भी एक अजीव पहेली है। प्रनादि कालमे बड़े ही मार्मिक शब्दों में खण्डन किया है। यही नहीं जीव इसको समझने का प्रयत्न कर रहा है परन्तु यह श्राज अपितु आज तक सब दार्शनिकोंने जगत रचना के विषयमें तक वैसी ही रहस्यमय बनी हुई है जैसी की हजारों लाखों युक्तियां दी हैं उन सबका उत्तर भी महत्वपूर्ण सुन्दर व वर्ष पहले थी। यद्यपि मात्र विज्ञानने पाश्रर्यजनक उन्नति सरल शब्दोंद्वारा दिया गया है। हम सबसे पहले अम्वेद की है परन्तु वह भी इस समस्याका हल नहीं कर सका को ही लेते हैं क्योंकि यही सबसे पुराना है। इसके प्रथम कि यह जगत् क्यों बना, कैसे बना और कब बना? मंडलका १६४ वां सूक्त दर्शनीय है। यह प्रथम मंडल ही मनरूपी वायुयानपर सवार होकर मनुष्यने बड़ी बडी इसमें सबसे अधिक पुरातन है। लम्बी उड़ानें भरीं परन्तु आज तक वह प्रायः कल्पना- बिनाभिचक्रमजरमभवनम ॥ ऋ० १-१६४-२ कौशल के सिवा और कुछ भी सिद्ध न कर सका। बड़े बड़े अर्थात्-यह बिनाभि रूप चक्रवाता सूर्य, अजरदार्शनिकोंने अपनी बुद्धिके चमत्कार दिखलाये लेकिन वे अमर, अविनाशी है। भागे चलकर इसी जगह लिखा है कि सब शुष्क तर्कवाद ही सिद्ध हुए, अन्त में उनको भी प्रस- सन्तदेव न शीर्यते स नाभिः॥ मन्त्र । फलताका मुख देखना पड़ा। जैनशास्त्र एक स्वरसे कहते हैं । यह सूर्यलोक सनातन (शाश्वन) है इसलिये इसका कि यह लोक किसीसे धारण किया हमा नहीं है और न कभी प्रभाव नहीं होता। वेद इतने पर ही सन्तोष नहीं किसीने इसको बनाया है, यह अनादि कालसे इसी प्रकार करता. अत: आगे कहता है किचला पा रहा है तथा अनन्त काल तक इसी प्रकार रहेगा, द्वादशारं नहि तज्जगय । मन्त्र" इपको ठहरने के लिये किसी ईश्वरादिके पाश्रयकी भाव- वारा मासरूपी मारे इसको बृद्ध नहीं बताते यह श्यकता नहीं है, यह नित्य, अजर अमर है, पर्यायरूपसे जैसा था वैसा ही अब है मथा भविष्य में भी इसी प्रकारका अवश्य अनित्य है । अर्थात् इसकी अवस्थाओं में प्रतिक्षण रहेगा। अर्थात् कालकी अपेक्षामे यह नित्य है। इन बातों परिवर्तन होता रहता है, परन्तु ये सूर्य प्रादि जातिरूपसे को सुनकर अनेक व्यक्तियोंके हृदय में यह शंका उत्पन होने हमेशा बने रहते हैं। अभिप्राय यह है कि ऐसा कभी नहीं लगी कि इस सूर्य मण्डल मेंसे प्रतिपल लाखों टन गर्मी होता कि यह सम्पूर्ण जगत् किसी समय परमाणु होजाये बाहर निकलती है. इस अवस्थामें अवश्य यह एक दिन
और पुन इसकी रचना हो या यह जगत किसी समय समाप्त हो जायगा। क्योंकि जिस खजानेमेंसे निस्यप्रति परमाणु रूप था और उसके पश्चात् यह जगत रूपमें बना व्यय होता हो तो वह अवश्य एक दिन खाली हो जायेगा। हो। यह अनादि निधन है, न यह कभी बना न इसका इसका वैज्ञानिक उत्तर अथर्ववेदमें दिया गया है कि-इसमें कभी नाश होगा।
से जो व्यय होता है उसकी पूर्ति प्रजापति ( प्राकृतिक वैदिक मत
नियम) द्वारा होती रहती हैयद्यपि भाज वैदिकधर्मी इस जगतकी उत्पत्ति मानते यत त उश्नं तत् प्रा पूरर्यात प्रजापतिः । हैं परन्तु हजारों वर्ष पूर्व वैदिकमहर्षियोंने जगत रचनाका
अथर्ववेद कां० १२ सू०१-६॥ * धृतः कृतो न केनापि हायं मिद्धो निराश्यः ।
इस प्रकार दुनियाकी सबसे पुरानी पुस्तकने इस जगत निरालम्बः शाश्वतश्च विहायसि पर स्थितः ॥ लोकप्र०१२ की नित्यताका समर्थन किया है। इसका अभिप्राय यह