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अनेकान्त
[ वर्ष ७
दादत्रयान्मक हैं । इन उपादादिके एक जगह रहनेमे कोई एकत्र' 'एकदा' के जबाबमे कहे गये हैं। समन्तभद्र युकि. विरोध भी नही है। नागार्जुन इम वस्तु-लणकी मान्यता के साथ प्रतिबन्धि उत्तर देकर ही सन्तुष्ट नहीं हुए वे दो का जोरोंमे खण्डन करते हुए 'माध्यमिका' मे लिम्बने हैं:-- दृष्टान्तोद्वारा भी वस्नुके उत्पादादि यात्मवकी मान्यता उत्पादाद्यानयो व्यस्ता नालं लक्षणकर्मणि। को मिद करते हैं :सस्कृतस्य ममस्ताः म्युरेकत्र कथमेकदा ।। ४५॥ घटमौलिम्वणार्थी नाशोत्यादस्थितिप्वयम ।
अर्थात--उत्पादादि तीन अलग अलग मतके लक्षण शं क-प्रमोद-मास्थ्यं जनो याति महेनुपम ॥ है या मिलकर तीनों ही मनका लक्षण हैं ? अलग अलग पयोव्रता न यत्ति न पयोत्ति दधित्रतः । ता व पतके लक्षण नही होमकते क्योंकि इसमे कोई व्यवस्था अगोरमव्रता नाभ तस्मात्तत्वं त्रयात्मकम ।। नही हो सकनी । और यदि मिलकर तीनों मत्का.लक्षण इससे स्पष्ट है कि ममन्तभद्रपर नागार्जुनके नाकालिक है तो वतीनो एक जगह कैसे रह सकते हैं ? इसी बातको शब्दोंकी चोट पहुंचा है और उनसे उन्हें जननाके विचलित मागार्जुन माध्यमिकाकी एक दूसरी कारिकाके द्वारा भी होनेकी आशंका उत्पन्न हुई है। इसीसे वे इतनी सबलताक स्पष्टतया प्रकट करते है :--
साथ उतर देने में प्रवृत्त एवं अग्रसर हुप जान पहने है। उत्पादतिमङ्गानामन्यत मंस्कृतलक्षणम । समन्तभद्रने नागार्जुनका इतना ही बालोचन नहीं किया अस्ति चंदनवस्थैवन्नाम्ति चत्ते न संस्कृताः ।। किन्तु नागार्जुनने जिन मुद्दों-भाव-भाव, निन्य-अनिय.
नागार्जुन के इस प्रबल श्राक्षपका सबल जवाब उमा- अपेक्षा अनपेक्षा प्रादि--को आधार बनाकर शून्याद्वैतका स्वातिक उत्तरवती स्वामी समन्तभद्रने प्राप्तमीमासाकी साधन किया है प्रायः उन मभी मुद्दोपर प्राप्तमीमामा निम्न कारिकाके द्वारा दिया है और उसमें उमास्वातिक सविस्तर विचार प्रक्ट करके स्याहादीनिमे अनेकान्तावस्तुलक्षणकी उत्पादादित्रयात्मकन्व मान्यताको पयुनिक रमक प्रमेय वस्तुका व्यवस्थापन किया है। मैं इस सम्बन्धी पुष्ट किया है.
और अधिक विस्तारकं माथ लिखना चाहता गा और न मामान्यात्मनोदेति न व्येनि व्यक्तमन्वयान। कितनी ही बानोपर प्रकाश डालनेकी दरछा थी पर पत्रीका व्येत्यति विशेपात्ते महकत्रोदयादि सन ॥ कलेवर इनना क्म होगया है कि लम्बे लेखों के लिये
हममें बतलाया है कि सामान्यरूपमे मत्का न तो गुञ्जाइश नही रही। अस्तु । उत्पाद होता है और न विनाश, क्योकि सतका पूर्वोत्तर इस अन्तःपरीक्षणपरम प्राय: यह माफ है कि स्वामी पर्यायोमे स्पष्ट सद्भाव पाया जाता है, किन्तु विशेषरूपमे-- समन्तभद्र के सामने नागार्जुनके विचागेकी खूब वर्ण और पर्यायकी दृष्टिपे--सत् उत्पन्न होता है और विनष्ट भी होता आलोचना रही है। समन्तभद्रने नागार्जुनक जिन विचारी है। अत: उत्पादादि तीनों मिलकर ही सत्का लक्षण हैं को अच्छा समझा उन्हे अपनाया और जिन्हें प्रयुक्त समझा और वे एक साथ एक जगह रहने हैं--इसमें विरोधादि उनका डटकर सयुक्तिक खण्डन भी किया है । और कोई भी दोष नहीं है।'
इसलिये समन्तभद्र नागार्जुनके या तो समकालीन थे पाठक, देखेंगे कि नागार्जुनने उमास्वा नके जिस अथवा कुछ ही समय बाद हुए जान पड़ते हैं । यह कुछ 'उत्पादव्यय ध्रीव्ययुक्तं मन्' [नवा० ।-३.] सिद्धान्तकी ही समय भी १०, २० वर्षसे अधिक प्रतीन नहीं होता कड़ी आलोचना करके मतको जड़से ही उखाइनेकी चेष्टा नागार्जुनके समय ई० मन् १८१ मे यदि ये दस या बीम की थी और 'संस्कृतस्य पमस्ताः स्युरेकत्र कयमेकदा जैसे वर्ष और मिला दिये जाय तो ममन्तभद्रका समय ई. सन् वाक्योका प्रयोग किया था । उमका सवा मोलह आना १ या २०१ के लगभग होता है। इस तरह समन्तभद्र उत्तर स्वामी समन्तभदने ‘महकत्रोदयादिसन' कह कर का जो समय जैन मान्यतानुसार दूमरी, तीसरी शताब्दी दिया। यहाँ ममन्तभद्रके 'मह' 'एकत्र' 'उदयादि सत्ये माना जाता है वही ठीक ठहरना है। तीन पद खास ध्यान देने योग्य हैं, जो नागार्जुनके 'कथ' वीरसवामन्दिर, सरसावा