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सन्देश-दात्री
ले-'पुष्पेन्दु', लखनऊ
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महामेन-एक विजयी गजा । केशवाजकुमार धनंजय-शवका मित्र और यज्ञाचार्यका शिय। कुन्तलकेशी-राजकन्या।
[ एक दृश्य ]
स्थान-राजमहलका एक भाग [ धनंजय बैठा हुआ किसी कार्य में निमग्न है. केशवका प्रवेश ]
केशव-धनंजय ! धनंजय-क्या है, गजकुमार! केशव-अब नही महा जाता। रहने दो अपने उपदेश,
बहुन मुन चुका। धर्म के नामपर अत्याचागेका ताण्डव देखते देखते हृदय पक चुका । श्राज
अंतिम निर्णय होगा। धनंजय-निर्णय । कैमा निर्णय !! केशव ! तुम क्या कह
रहे हो? क्या उन्मत्त तो नही होगये ? कुछ श्राभप्राय भी बनाओगे, किस बात का निर्णय
करना चाहते हो? केशव-तुम अनभिज्ञ नही हो । बच्चे बूढे मभी इम
घोषणाको सुन चुके हैं। धनंजय-(श्राश्चर्ययुत ) किम घोषणाको केशव ? क्या
कोई .... केशव-कल महायज होगा। धनंजय-तो कौनमा अनर्थ होगा? केशव-कोनसा अनर्थ होगा! मुझीसे पूछते हो कौनमा
अनर्थ होगा !! क्या महायज्ञकी श्रागमे विशालाश्च
को नस्म करनेकी श्रायोजना नही हुई? धनंजय-महायज्ञ की पूर्ति के लिये ऐमा होना आवश्यक है।
क्योंकि राज्यका मर्वश्रेष्ठ अश्व विशालाही तो है।
केशव--परन्तु धनंजय ! तुम्हें यह भी मालूम होगा कि
पिता जी उसको कितना प्यार करते है और मुझे भी स्वयं उमम कितना मोह है। क्या यज्ञ की धधकती हुई लपटोपर उसका बलिदान देवकर
मेग हृदय तिलमिला न उठेगा? धनंजय-हृदयपर अधिकार करना होगा केशव ! इसी
कायरता और मोहकी भावनापर विजय प्राम करनेका दूमग नाम आत्माकी स्वतंत्रता है; क्योंकि हम जितने हा अशम अपनी प्रिय वस्तु को पवित्र यज्ञकी भेट करते हैं, उतने ही अंश में हम अात्मविजयी होकर संसारके बंधनौम मुक्त होते हैं। प्रात्माकी लाग-शक्तिकी परीक्षा
महायज-द्वारा ही पूर्ण हो मकती है। केशव-तब फिर महायज्ञकी श्रातिका प्रारम्भ अपने
कुटुम्ब ही मे क्यो न किया जाय ? क्यों न सगा भाई मगे भाई की अाहुनि दे डाले? और मगाभाई ही क्यों ? स्वयं अपनी दो भेंट देकर क्यों न मुक्ति
पर अधिकार किया जाय? धनंजय-केशव ! तुम्हे अाज क्या होगया है ? अाज तक
तो कभी भी ऐमी बहका बहकी बाते न की थी? इम राजपरिवार में अनेको ही यश हो चुके और