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अनेकान्त
[वर्ष ७
महायज्ञकी आयोजना तो स्वयं तुम्हारे पिताजीने महासेन-भगवन् ! यह कैमी बिडम्बना है ! रक्षा कगे, ही गुरुदेव (यज्ञाचार्यजी) के पगमर्शमे की थी।
रक्षा ... ' उन्होंने ही अपने प्यारे घोड़े विशालाकी आहुति केशव-रक्षा नहीं, पिताजी, बलिदान! मुक्ति पाने की मोहदेना स्वीकार किया है।
मयी लालसा में, अपनी यात्माको मुखी बनानेकी केशव-क्या उन्हे मति-भ्रम नही हो सकता?
स्वार्थमयी भावनाम, जिम कर्तव्यने अबतक लाग्यो (महामनका प्रवेश)
प्राणी यज्ञकी धधकती हुई अग्निमें स्वाहा कर महामन-पुत्र! विवाद क्यों करते हो। धनंजय जो कुल दिये, उमका यह स्नेह भरा हुआ रुदन कैमा ? कह रहा है वह ठीक है और ऐसा ही होगा।
करो न भेट, पिताजी, मे अपना जीवन दनको केशव-पिताजी ! श्राप क्या कहते हैं; क्या विशालाका प्रस्तुत हूँ। करलो अपनी आत्माका उद्वार, पत्रकी बलिदान होगा?
भेट देकर। महासेन-हॉ पुत्र ! प्रिय वस्तुका मोह त्याग करना ही महासेन-बम करो, केशव ! नहीं सुना जाना । धनंजय ! मुक्तिका साधन है. और अब में वृद्ध भी हो
मेरी अात्मा धधक रही है। शान्ति, में चाहता चला, सम्भवत: यही मेग अंतिम यज्ञ हो। इसी
हूँ शान्ति । कारण जिस अश्वपर चढ़कर मैंने अनेकों (नेपथ्यमे कुंनलकेशीका गाना मुनकर ) गज्योपर विजय प्राप्त की और जिम के कारण यह कैमा मंगीन मुनाई दे रहा है ! अाज में विजयी महामेन कहलाता हूँ, उमीकी
[कुंतलकेशी गाती हुई पानी है ] . आहुति होगी। उसमे बढ़कर मुझे और किस जिमने जगके सब जीवोको, निर्भय जीवनका दान दिया। पदार्थका मोह हो सकसा है ?
मिथ्या भ्रममें भटकी जनताको जिमने अनुपम ज्ञान दिया । केशव-श्राप भूलते हैं, पिताजी ! एक वस्तु आपको उम खुद जियो जगतको जीने दो, सुम्ब शानि मुधा रम पीने दो। से भी अधिक प्यारी है।
जिसने जगको यह मंत्र दिया, फिर बंधनमुक्त स्वतंत्र किया । महासेन-कहो, केशव, कहो ना। मैं महायज्ञका पूनिके उम जगतपूज्य परमेश्वरका सुनलो पावन उपदेश मखे! लिए उसे भी दे डालू गा।
हिमाम धर्म नहीं रहना, है यही सुग्वद मन्देश मग्न ! केशव-वह मैं हूँ; आपका पुत्र कशव ।
जगम हैं जीत्र समान मभी, दुरवसे रहने भयवान मभी , महासन-पाह! क्या कहा! तुम मेरे जीवन-मेरी सब ही को प्याग है जीवन, इसकी रक्षाके हेतु यतन ।
प्रात्मा ओह! यह न हो सकेगा। जिन नेत्रोंने जिले मब ही करते हैं बेचारे, सबको अपने बच्चे प्यारे । राज्यमहलके सुन्दर पलनेम झूलते देखा, सन्त तुम सबपर करुणा दिखलाओ, तुम विश्व-प्रेमको अपनाश्रो। कुसुमकी तरह फलते फूलते देखा, वे नेत्र उम तुमने यह मानव तन पाया, तुमने सुन्दर जीवन पाया,
का यह हृदय-विदारक दृश्य न देख सकेंगे। पर तुम्हें प्रात्मका जान नहीं, अपनेपनकी पाहचान नहीं। केशव-क्यों न देख सकेगे? पिताजी !-जिन नेत्रोने यदि निश्चल होकर संयमसे, अानमका ध्यान लगाओगे,
अनेकों माताओंके हृदयोंके टुकड़ोका यज्ञकी तो निश्चय ही धीरे धीरे भगवान स्वयं बन जाअागे । अग्निमें तड़पना देखा और उन माताओका करुणामयका उपदेश यही, है महावीर-मदेश यही ॥ बिल बिलाना, ऑसू बहाना देखा, वे यह न देख महासेन-कौन ? कुन्तल केशी ! तुमने यह गीत कहोमे सकेगे? जिन नेत्रोंके सामने हँसते खेलते हुए
सीवा? बच्चे चीखते चिल्लाते यज्ञको अग्निमे भस्म होगये! कुन्तल-क्यो, क्या यह सुन्दर नहीं लगता, पिताजी ? किन्तु करुणा या दयाका एक ऑसू भी जिन नेत्रों महासेन-बहुत सुन्दर लगता है। इस गीतको सुननेसे में न पाया, वे क्या अब भी इतने कठोर न हा सके?
ऐसा मालूम होता था जैसे कोई अमृत बरसा