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किरण १, २]
समन्तभद्रने भी उपर्युक्त श्राप्तमीमांसागत कारिकामे जैनदृष्टि उसी बात को अपना सिद्धान्त स्थापित किया है और और स्पष्ट किया है कि परद्रव्यादिचतुष्टयमे मतरूप पदार्थ का ही प्रतिषेध किया जाता है प्रसतका नहीं क्यों के भाव विधि-विधान और निषेधका स्थान होता है ।
नागार्जुन और ममन्तभद्र
(३) नागार्जुन श्रागे चल कर जब यह कहते हैं-पूर्व चेन प्रतिषेधः पश्चान प्रतिषेधनिन चोपपन्नं । पत्रानुपपन्नो युगश्च यतः स्वभावोऽमन ॥ २० ॥
तब समन्तभद्र इसका उत्तर देते हुए कहते हैं-मंज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिपेध्याहते कचिन । ०२७
यो नागार्जुनने 'प्रतिषेध्यासिद्धेः' कह कर प्रतिषेध्य और प्रतिषेवकी अनुवत्ति दिखलाई है और इस तरह शून्यतम्वका साधन किया है। समन्तभद्र इसका सयुक्तिक विरोध करते हुए कहते हैं कि प्रतिषेध करनेके पूर्व प्रतिपेध्यको माने बिना प्रतिषेध हो ही नही सकता और प्रति घेध्य अवश्य सतरूप मानना होगा। यह तो स्पष्ट ही है कि नागार्जुनने गौतमीय न्यायसूत्रके कितने ही सूत्रोका खंडन किया है जिनकी कुछ झलक ऊपरकी कारिकाश्रम नथा विग्रहव्यावर्तनी और माध्यमिकाकी दूसरी अनेक कारिकाथों में निहित है
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(४) मापेक्षता और निरपेक्षताको लेकर नागार्जुन विग्रहव्यावतिनीमें कहते हैं :--
अथ प्रमाणमिद्धया प्रमेयमिद्धिः प्रमेयमिद्धया च । भवति प्रमाणसिद्धि: नास्त्युभयस्यापि ते सिद्धिः ॥
समन्तभद्र भी प्राप्तमीमांसा मे यही कहते हैं:-- यथापेक्षिकसिद्धिः स्यान्न द्वयं व्यवतिष्ठते । ७३
श्रपेतिकमिद्धि माननेमे नागार्जुनने जो 'नाम्म्युभयम्यापि ते सिद्धि' शब्दों द्वारा दोनो की भी सिद्धि न होन रूप दोष दिया है वही समन्तभद्रने 'न द्वयं व्यवतिष्टते शब्दों द्वारा द्रकट किया है।
(५) नागार्जुन पुनः विग्रहन्या० मे लिखते हैंयदि च प्रमेयसिद्धिरनपेक्ष्यैव भवति प्रमाणानि । किन्ते प्रमाणमिद्धया तानि यदर्थं प्रसिद्धं तन ॥ ४५ समन्तभद्र भी इसी बानका प्रतिपादन करते हैं:-- अनापेक्षिकसिद्धौ च न सामान्यविशेषता | | ० ७३ ॥ (६) नागार्जुन श्रागे चल कर पुनः कहते हैं:--
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यदि च स्वतः प्रमागामिद्धिरपेक्ष्य ते प्रमेयाणि । भवति प्रमाणसिद्धिः न परापेक्षा हि सिद्धिः ॥४५॥
इसपर समन्तभद्र आप्तमीमांसामे नागार्जुनकी तरह स्वरूपमिद्धि तो परापेक्ष न होनेका अपना भी मत प्रकट करते हैं । पर साथमें अनेकान्तर मे अपेक्षा और अनपेक्षा दोनों वस्तु-सिद्धि (वस्तु के व्यवहार और स्वरूपकी सिद्धि) की सुन्दर एवं सयुक्तिक व्यवस्था भी करते हैं। यथा-धर्मविनाभावः सिध्यत्यन्योन्यवीक्षया । न स्वरूपं स्वतो ह्येतन कारकज्ञापकाङ्गवन ॥ ७५ ॥
अपेक्षा अनपेक्षाकी समस्या नागार्जुन के लिये माध्यमिका भी रहती है । यथा-यदीन्धनमपेक्ष्याग्निरपेक्ष्याग्नि यदीन्धनम् । कनग्न पूर्वनिष्पन्नं यदपेयाग्निरिन्धनम || गन्धनमपेदग्निर्भवतीति प्रकल्प्यते । एवं सतीन्धनञ्चापि भविष्यति निरग्निकम् ॥ योऽपेक्ष्य मिध्यते भावम्नमेवापेक्ष्य सिध्यति । यदि योऽपेक्षितव्यः समिध्यतां कमपेक्ष्य कः ॥ योऽपेक्ष्य सिध्यते भावः सोऽसिद्धोऽपेच्यते कथम । अपेक्षयेन्धनमग्नि न नानपेक्ष्याग्निमिन्धनम् ॥ - पृ० ७०, ७१ यहाँ पाठक देखेंगे कि नागार्जुन अपेक्षा और अनपेक्षा के एकान्तोकी पकडकर जब उनके समन्वयका हल न निकाल सके तो शुन्य तत्वको मान बैठे। पर समन्तभद्रने इसका हल निकाल लिया और लोकमे दिख रही अपेक्षा अनपेक्षा मिद्धिको मानकर अनेकान्तदृष्टिसे उसका व्यव स्थापन किया । जैसा कि उपर्युक्त वाक्योंस प्रक्ट है।
इस उपर्युक्त थोडेसे परीक्षण पर यह माफ जाना जाता है कि समन्तभद्रपर नागार्जुनके साहित्यका निकट समयवर्ती प्रभाव है । इस लिये दोनोंका अस्तित्व प्रायः एक कालीन है अथवा नागार्जुनके तुरन्त बाद समन्तभद्र हुए जान पढते हैं।
(७) और देखिये
श्राचार्य उमास्वातिप्रभृति विद्वानोंने मनका या वस्तुका लक्षण 'उत्पाद, व्यय और धोन्य' किया है और बतलाया है कि संसारकी सभा चेतम श्रचेतन वस्तु उत्पा१' उपादव्यय-व्ययुक्त मत्-तत्वार्थ सूत्र ५- ३०