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किरण ५,६1
वन्दिनी
सहसा उपवनका सुवासित, शीतल वातावरण भात- विशमान थी। पुरुषकी कठोरता और अपनी कोमलताको ध्वनिमे प्रकम्पित हो उठा।
अनुभव करते हुए भी पुरुषके विरुद्ध मुँह खोलनेकी ताकत मखियां, सहेलियां, दासियां रोने लगीं। राजकर्मचारी वह अपने में मानती थी। दौडने लगे। उपवनसे लगाकर राज भवन तक चीख उठा! आवश्यकतासे अधिक दब्बूषन जहां नारियोंकी प्रगति महाराजका ठाँध गया। राज-रानीकी आँखें सूज पाई। में बाधक है, वहाँ पुरुषोंको अन्याय, अनाचार और दुराचार
सैकड़ी कण्ठ एक साथ एक ही प्रश्न कह रहे हैं-- के मार्गपर बढ़ने देनेका अवसर देता है । वह कहती-यह 'राजकुमारीजीको कौन ले गया?'
बुरी चीज़ है। पति बिगड़ना आय और गृहणी देखती रहे, सिर्फ उसीको लेकर कि उसे बोलनका हक नहीं, क्योंकि
वह पुरुषकी दासी है यह कदापि अच्छी बात नहीं कही तरुण-बुद्धिमें तीक्ष्णता, तरुण-विचारों में गांभीर्य जा सकती। न इसमें नारीके ममतामयी स्नेहकी गन्ध श्राती और तरुण-शरीरमें कान्ति रहती है. बल रहता है। पर, है, न स्वकर्तव्यकी' बह बहुत कम रहता है, जिसमे अपना और दूसरेका हित- पति हाग, पनीने विजय पाई। चन्दनाकी और श्रॉल साधन हो। कुछ बदलकर कहें तो इसका नाम होगा- उठाकर देखनेका बल भी विद्याधर अपनेम नही पा रहा श्राध्यास्मिक दृष्टि!
था। वह चुप था! भीतरका अपराध उसकी बची-खुची ___ तरुणाईके भीतर वासना जागृत रहती है, तो विवेक क्षमा शक्तिको भी समाप्त किए दे रहा था। पश्चातापकी भागम मोग लेता है। फिर उसके हाथों शुभ-कर्म मुश्किलसे ही जल रहा था वह ! हो पाते हैं। बुद्धि काम नही देती, उमगे ढकेलती हैं-- चन्दना रो रही थी। नलहटीकी ओर !...
विद्याधरी कह रही थी- 'यह गनेका हथियार श्राज विमान में बैठा जा रहा था--पृथ्वीकी शोभा देवता- कुछ काम भी देता है, आगे चलकर बिल्कुल व्यर्थ हो भालता। श्राकाशमं जो कुछ देखनेको नहीं था--शून्य जाएगा । बिना इस छोडे नारीका कल्याण नहीं ! रोश्रो श्राकाश ! केवल विशालना ही तो उसने पाई है। दूसरेके मत, बहिन ! हिम्मतपर भरोसा करना सीखो !' न हप्पनमात्रसे कब किसको सुख मिला है ? अनाया उसकी तरुण-दृष्टिने देखी--रूपकी रानी--
लघुपरणी-विद्याके सहारे चन्दनाको पृथ्वीपर उतारकर चन्दना ! मन मुग्ध होगया। मनके पास गांभीर्य नहीं था, विद्याधर अपने रास्ते लगा। उसे यह सोचने-समझनेका विवेक नहीं था। उमंग थी, तरुण और शक्तिशाली ! वह अवकाश भी उम चक्क नहीं था, कि राजकुमारी कहाँ नीचे उतर आया, शायद अपने व्यक्तिरवसे भी!...
पहुंचेगी, क्या होगा उसका ?
पर, चन्दनाके दुर्भाग्यका छोर नहीं आया था प्रारम्भ
ही हुश्रा था । अच्छे स्थानपर उतरती, यह कैसे हो चन्दनाका अपहरण करने के बाद भी अभागे विद्याधर सकना था ? को सुख नहीं मिला । मिलनकी उत्सुकता जरा भी टिकाऊ लघुपरणीके सहारे वह पृथ्वीपर श्रागई-मकुशल ! नही निकली। इस अन्याय-कर्ममे उसने रस लिया, पर किन्तु अब एसे स्थानपर उसने अपनेको पाया, कि जहा अानन्द नहीं मिला। हाथोंहाथ उसे यह कडुवा-घूट उगल चारों ओर अकुशल ही अकुशल दीग्व रही थी । श्रागके देना पडा!
भीतर बैठकर, शीतलताकी अाशा करना. मुर्खतासे अधिक गृहणी साथ थी। दुर्भाग्यसे वह बिल्कुल सीधी सादी है क्या ? कुछ भी नो नहीं। नहीं थी। नारी थी, पुरुषकी दबैल भी, किन्तु पुरुषके चन्दनाकी विपद्ग्रस्त बुद्धिने बनाया--'त्राणकी भाशा अन्यायपर बढे हुए पदको पीछे ढकेलनेकी शक्ति उसमें नही। जीवन, मृत्युके मु में प्रतिक्षण पहुँचता जारहा है।'