________________
अनेकान्त
[वष ७
वती माधुका ग्रहण करनेसे दो श्रापत्तियां उत्पन्न होती है। अब हम बातमीमांसाकी उम कारिकाके प्रथंपर पाने
एक तो यह कि यहां यदि सामान्य मुनिका ही ग्रहण हैं जिसके प्राचारमे मैंने यह कहा है कि उस ग्रंथके कर्ताको किया जाय तो वीतराग और विद्वान् इन दो विशेषणोंक।
सुख दुःखकी वेदना स्वीकार है । वह कारिका इस प्रयोग सर्वथा निरर्थक होकर कारिका अपुष्टार्थ दोष उत्पा प्रकार है:-- पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुावान् पापं च सुग्यतो यदि।।
होता है, जो प्राप्तमीमामा जैमी अत्यन्त ठोस रचनाम वीतरागो मुनिविद्वांस्ताभ्यां युज्यानिमित्ततः ।।।
अकल्पनीय है। क्या इतनी शिथिल रचना ऐसे ग्रंथकार इस कारिकाके अर्थका स्पष्टीकरण करने के लिये उसके ।
द्वारा संभव है जो अन्यत्र स्वयं कहते हैं कि-- 'विशेष प्रसंगपर ध्यान देलेना आवश्यक है। प्राप्तमीमांसाकार यहां
वाच्यस्य विशेषणं वचो यतो विशेष्य विनियम्यते च यत ? यह सिद्ध करना चाहते हैं कि अन्य लोगोंका जो यह मत है
दूसरे, यदि रचना सदोष ही मानकर न्यायाचार्यजी कि सुख या दुखसे निबयत: पुण्य पापका बंध होता है वह
द्वाग छठे प्रादि गुणस्थानवर्ती मुनिश ग्रहण किया जाय यथार्थ नहीं हैं। प्राचार्य १२ वीं कारिकामें कहते हैं कि
तो फिर प्रतिपाद्य विषयकी युक्ति ही बिगड़ जाती है और यदि मरेको दुःख देनेसे निश्चयत: पापबन्ध होता हो और
हेतु विपरीत होनेमे जो बात अमित करना चाहते हैं वही सुख देने पुण्य, तो अचेतन वस्तुओं और कषाय रहित
M सिद्ध होती है, क्योंकि छठे गुणस्थानमे सुख-दुख की वेदना जीवों को भी यह बन्ध होना चाहिये, क्यों कि वे भी तो
- के साथ प्रमाद और क्षाय इन दो बन्ध के कारणोंसे कर्मदूसरेके सुमा दुःख उत्पादनमेनिमित्त कारण होते हैं। अभ.
बन्ध अवश्य होगा। यहां ज्ञानावरणादि घातिया कोकी द्वाय यह कि दूसरोंके सुख-दुख उत्पादनमें निमित्त कारया
पाप प्रकृतियों एवं वेदनीयादि अघातिया काकी पुण्य होनेपर भी जब वस्तुओं एवं प्रकषायी जीवों के पुण्य-पापका
कृतियोका परिणामानुसार बन्ध होना अनिवार्य है । सातवे बन्ध नहीं होता। अतएव परमें सुख-दुखका उत्पादन पुण्य
गुणस्थानमें प्रमादका प्रभाव हो जाने पर भी पायोदयमे पारका ध्रन कारण नहीं है। अब संभव है कोई यह कहे कि
कर्मबन्ध होगा ही, और यही बात सूचमसाम्पराय गुण स्थान दूसरोंको नहीं, किन्तु स्वयं अपनेमे दुखके अनुभव से पुण्य और
तक भी उत्तरोत्तर हीन क्रमसे पाई जावेगी। अतएव छठे सुखपे पाप उत्पन्न होता है तो उसके उत्तरमे श्रार्य कहते
दश गुगुस्थान तक तो श्रातमीमांयाकारकी युक्ति किसी हैं कि नहीं, ऐसा भी नहीं है, क्यो कि यदि अपनेमे दुखसे
प्रकार भी मिद्ध नही होती। हां, ग्यारहवे अहि गुणस्थान
कषायोदिन रहित होने वीतराग एव श्रवन्धक है, अत निश्यत: पुण्यबन्ध होता हो और सुखसे पापन्ध तो वीतराग विद्वान मुनि भी पुण्य-पापसे बधगे, क्योंकि उनमें
यहि कारिकामं विद्वान विशेषण न जगा होता तो ग्यारह भी दुःग्य-सुख का निमित्त विद्यमान हैं। इसका तात्पर्य यह
प्रादि गुणस्थानवी वीतराग मुनिके ग्रहण करने से प्रर्थकी निकमाता है कि व.तगत विद्वान मुनिम सुख दुम्बका बंदन
मिति हो सकती थी। किन्तु कारिक मे जो विद्वान् विशेषगा होते हुए भी पाप-पुण्यका बन्ध नहीं होता।
भी लगाया गया है, और जिमपर न्यायागर्यजीने मयथा ही यहां न्यायावार्यजीका विवेक यह है कि यह जो वीत. कोई ध्यान नहीं दिया है, उसमे है कि प्राचार्य ग्याराग मुनिमें सुख-दुम्ब स्वीकार किया गया है वह छटे रहव और बारहवं गुणस्थानोके भी पार जाकर केवलीके श्रारि गुणस्थानवी वीतराग मुनियोके ही बतलाया है न दो स्थानोकी ओर ही यहां दृष्टि रखते हैं। उनके रोमा कि तेरहवं चौदहवें गुणस्थ ननी वीतराग मुनि केवलियां करनेका कारण यह प्रतीत होता है कि ग्यारहवे और के।" पहितजीने सुख दुखके समावको छठे गुणस्थान बारहव गुणस्थानाम
बारहवं गुणस्थानोम वीतरागता होते हुए भी अज्ञानक मादिमें स्वीकार किया है और तेरहवे चौदह गुणस्थानों में सद्भावसे कुछ मलोत्पत्तिकी श्राशका हो सकती है। किन्नु उनका निषेध किया है. इससे उनका अभिप्राय छठेसे लेकर अन्तिम दो गुणस्थान ऐसे हैं जहां माता व श्रयाता वेदनीय बारहवं गुणस्थान तक उनके सद्भाव माननेका अनुमान ग्रादि अघातिया कोके उदयमे नग्य और नग्वया वेदन किया जा सकता है। किन्तु उक्त कारिकामे छठे गुणस्थान- तो संभव है किन्तु कषाय व अज्ञानके भावमे पुण्य पाप