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किरण ३,४]
मानव-संस्कृति के इतिहास में भगवान वीरकी देन
बन्ध या किसी भी प्रकारके अंतरंग मनकी सवथा संभावना प्रारमसुखदुःखाभ्यो पापेतरेकान्तकृतान्ते पुनरकवावस्थापि नहीं रहती। अतएव उन्होने इन्हीं दो गुणस्थानोंका ग्रहण ध्रुवमेव बन्धः स्यात्-इत्यादि । इस प्रकार उक्त कारिकाकिया है जहां पुण्य-पापके बन्धकी जरा भी आशंका न की न्तर्गत वीतरागो मुनिविद्वान्' से अभिप्राय ठीक उन्हीं जा सके और उनकी युक्तिमें थोडासा भी दूपण न निखाया केवलीसे हो सकता है जिन्हें उहोंने स्वयंभूस्तोत्रमे "सब्रह्मजा सके । स्वयं अष्टमहस्त्रीकारने भी यहां वीतरागो मुनि निष्ठः सममित्रशत्रुर्विद्याबिनिन्तिक षायद ष" (१०), विद्वान' से प्रकाषाय वीतराग तत्वज्ञानी ही अर्थ ग्रहण "कृष्णानदी स्वयोती विद्यानाचा विषक्तया" (१३) व विया है जैसा कि उनके टीका वाक्योंसे स्पष्ट है-"स्वस्मिन काय-वाक्य-मनसा प्रवृत्तयः ..." (७४) मादि प्रकारसे दुःखस्य सुखस्य चोपत्तो अपि वीतरागस्य तत्वज्ञानवतस्त- र्णित किया है। अन्य किसी प्रर्यमे कारिका की युति सिद्ध दभिसंधेाभावात् न पुण्य-पापाभ्यां योगस्तस्य तदभि नहीं होती। सन्धिनिबन्धनस्यात् इति त नेकान्तसिद्धिरेवायाता ।
(क्रमश:)
मानव-संस्कृतिके इतिहासमें भगवान् वीरकी देन
( लेग्वक-पं० रतनलाल संघवी न्यायतीर्थ विशारद )
भगवान महावीर राजकुमार थे, सब सुख सुविधा, बलिदान द्वारा हृदयकी पूर्ण निर्मना साथ अहिंसाका भोगांकी विशालता एव वैभवकी विफलता सामने मुख सर्वोच्च एवं उदात्त सिद्धान्त मानव-संस्कृतिक सम्मुख उप पूर्वक समुपस्थित थी। किसी भी प्रकारको चिन्ता एवं स्थित किया। यह पविनतम कार्य-राजकीय-माज्ञा पत्र द्वारा अभाव उनके लिये नाम शंष थे। शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं नहीं, बल्कि महत्तम प्रारम-दमन एव मवस्व वैभव-परियुवा था। किन्तु फिर भी दुखियोंका दुःख पीड़ितोंकी याग द्वारा किया। इसमें वीरकी अनुपमेय वीरता, वीकी पीडा, शोपितों का शोपण, अनीका दर्द सामाजिक विष- लोकोत्तर महानमा और वीरकी कभी न बुझनेवाली मता एवं धार्मिक अत्याचार उमकी पवित्र विचारधाराके उज्वल ज्योतिका रहस्य सन्निहित है। सामने नग्न नृत्य कर रहे थे। उनका हृदय धार्मिक क्षेत्रमें चीर कालीन भारतीय संस्कृति में हिंसाका स्पष्ट रूपमा होने वाली हिं पाये विचलित हो रहा था, वे धार्मिक नोट पूर्ण साम्राज्य था । अहिमाकी उपेक्षा थी। अहिापाके रहमें होने वाली इस प्रकारका हिमामं मानव सस्कृनिका महान स्य और शकिके प्रति अविश्वास एवं प्रमामथ्र्य प्रशि हाम और पतन देख रहे थे । उनको विच र-धाराम धर्मका किया जा रहा था; ऐसी विकट परिस्थिति में भी हिमाय। यह पर्वथा विपरीत मार्ग था। यद्यपि जमता. राजा. पुणे पूर्ण समर्थन भगवान वीरन किया। इसके लिये राजय हिनवर्ग बनाम बाह्म यावर्ग यज्ञके क्रियाकाडोमे ही और मुश्व-मुविधा और सब प्रकार मोगोपभोगांका परियाग हिंयामें ही परमधार्मिकता एच उच्च श्राध्यामिक ग्रामी- मथा एव पदेषकं लिये कर दिया। एक महान नति बतला रहे थे। इस प्रकार तत्कालीन वैदिक संस्कृतिका तपस्वी बन कर जगलकी और चल दिये तथा बारह वर्ष रूप इतना विकृत, घृणित, एव हिंसासे दूषित हो रहा था मक महान तपस्या और अनेकानेक कष्ट उठा कर जनताक कि जिममे मानव जाति मघंथा निम्नतम कोटिकी और हृदय में अहिंसाकी प्रतिष्ठा की। मानव-संस्कृतिक प्रवाह-मुख माकर्षित हो रही थी। ऐसे अधकारमय युगमें भगवान को अहिंसाकी भोर मोर दिया। महिमाको ही धर्म धर्मक। वीमने अपनी माम ज्योति, स्याग, तप, प्रामबल, और हृदय एव जनताकी माराध्यदेवी बना दिया।