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अनेकान्त
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वोरकी विचार-धारामें आरमाका और ईश्वरका सत्ता. धिक श्रद्धाशील एवं भक्तिशील बनती चली जायगी। रूपसे अस्तित्व था। नास्तिक नहीं थे। आरमाकी नित्यता मानव-समाज और जीव-जगतके प्रति भगवान वीरके और उसमे (पारमाकि) ईश्वरीय रूपमें उन्हें पूर्ण विश्वास अनेक प्रकार के उपकार है, किन्तु अहिंसा सिद्धान्तका यह था। वे इसी विश्वासको जन-साधारणमें अहिंसामय एक उपकार ही इतना शक्ति-संपस और हद है, जो कि प्राचारकी भिसिपर ही विकसित होता हुआ देखना चाहते सदैव वीरका प्राणी जगत्केचमें स्मरणीय, और ज्योति. थे। उनकी दृष्टि में केवल शुष्क ज्ञानमय दार्शमिकता शून्य- संपच विश्वविभूतिके रूपमें माम-कीर्तन कराता रहेगा। वत् थी, जब तक कि प्राचारमें पूर्ण रूपसे अहिंसा न हो। वीरकी दूसरी देन है--प्रात्मनिर्भरता। तकालीन
भगवाम वीरमे भारतीय साहिस्य और भारतीय दार्शमिक जगत में ईश्वर जगत्-कत्ता माना जाता था। संस्कृतिमें अहिंसाके के अक्षय बीज बोये जो कि अाज किन्तु वीरकी दृष्टिम यह श्रात्माकी नपुंसकता थी। वीरका दिन तक नष्ट नहीं हो सके और सदैव फखते रहे तथा आदेश था कि प्रत्येक प्रारमा ईश्वर ही है, और बिना सिद्ध प्रागे मी फलते फूलते रहेंगे। धीर-कालके पश्चात् आज प्रारमाकी प्रेरणाके ही प्रत्येक पाएमा अहिंसाके बल पर दिन तककी मानव-जातिकी विचार-धाग निरन्तर इसी विकास करता हुआ पूर्ण, सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो सकता विचार पर रद होती चली जारही है कि मानव-जातिकी है। विश्वकी रचनाके प्रति और सांसारिक प्रामाओंके प्रति समुन्नति और सुख-सुविधा एवं स्थायी शांति अहिंसामें ही सिद्ध-प्रारमाका किसी भी प्रकारका हाथ मानना अहिंसाके समिहित है, न कि अन्यमार्गमें।
प्रति अनास्था प्रकट करना है। भगवान वीर प्रत्येक प्रात्माके वर्तमानमें विज्ञान-सामग्रीके बलपर मानव जातिके लिये स्वबल पर स्वतंत्र विकासके हामी थे और वह भी संहारके लिये विविध शस्त्रास्त्रोंका निर्माण किया जाकर अहिंसाके आचरण द्वारा ही। जो विश्वव्यापी महायुख प्रवलित हो उठा है एवं प्राजकी प्रारमतत्वकी स्थिति के संबंधमे उमकी यह दृढ़ धारणा राजनीति में कपटका जो पूर्ण रूपेण प्रवेश हो गया है उस थी कि प्रकृतिकी मूल भूत वस्तुओं-हवा, पानी, पृथ्वी, से संपूर्ण विश्व संग्रसित हो उठा है और इससे अब बनस्पति और अग्निमें अनसानत प्रात्माओंका निवास है, मानव-समाजको अपने कल्याणका मार्ग केवल एकमात्र जो कि सिद्ध-प्रात्मा याने ईश्वरकी रचना नहीं है, किन्तु अहिंसामें ही दिखाई दे रहा है।
प्रकतिरूप विश्वमें अनादि कालकी स्वाभाविक देन है। विश्व-विभूति महात्मा गाँधीके त्याग और तपके बल इस लिये मुक्ति एकमात्र मार्ग अहिंसा ही है। तदनुसार पर यह संभव दिख रहा है कि आगे आने वाली संतति पूर्ण शक्तिके साथ प्राध्यामिक उच्चतम विकास के लिये अहिंसाको ही विश्वकी संपूर्ण सस्कृति साहित्य, व्यवहार स्व-प्रात्म-निर्भर बनो । ईश्वर-कर्तृत्व जैसे सिद्धान्तके और राजनीतिका प्राधार बनावेगी। निस्स देह विश्वपूज्य अनुयायी बन कर प्रारमाको नपुंसक मत बनायो। महात्मा गांधीने वीरकी इस महान देनरूप अहिंसाको उसी वीरकी तीसरी देन है--वस्तु-विचारके प्रति अनेकान्ताअर्थ में विकसित पवित और भाचरणीय यमाया है, रमक विशाल दृष्टि । उनका आदेश है कि प्रत्येक वस्तु जिस अर्थमें कि वीरने इसका प्रतिपादन किया है। सापेक्ष है। निरपेक्ष रह कर कोई भी वस्तु अर्थक्रियाकारी
यह वीरके महान् और अपरिमेय त्यागकी ही महिमा स्वशील नहीं बन सकती। बिना प्रक्रियाकारोवके वस्तु है कि जिसके बलपर अहिंसाकी अमिट छाप पड़ी, और का वस्तुत्व ही नष्ट हो जाता है। तथा बिना अनेकान्त-दृष्टि धार्मिक क्षेत्रमें सदैवके लिये अहिंसा देवी बन गई। मानव के शेयकी शेयतामें भी भ्रम, विपरीतता, तथा अस्पष्ट ज्ञाम संस्कृति के इतिहासमें भगवान वीरकी यह सर्व प्रथम महान् होनेकी पूर्ण संभावना है। अतएव दार्शनिक विचार-धारामें देन है, कि जिसके लिये मानव-जाति ज्यों २ संस्कृत, स्याद्वादको-अनेकान्त-रष्टिको अवश्य स्थान देना चाहिये। विचारशील एवं अधिकाधिक सभ्य होती जायगी त्यों २ सापेक्ष विचारष्टिसे अनेक प्रकार विचारोंकी पारस्परिक पोरकी महानताके प्रति और इस महान देनके प्रति अधिका- विषमता, असहिष्णुता, मादि तुषण एवं धार्मिक तथा