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किरण ३-४]
रत्नकरण्डश्रावकाचार और पाप्ममीमांसाका कर्तृत्व
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ज्वरका प्रभाव" प्रमाणित करते हैं। किन्तु श्लोकका भावार्थ कुन्थुप्रभृत्यखिलसस्वदयैकतानः तो इसके सिवाय कुछ नहीं दिखाई देता कि जम्म, ज्वर कुन्थुर्जिनो ज्वर-जरा-मरणोपशान्त्य । और मृत्यु जिस प्रकार पाकर पाधारण लोगोंको व्याकुल
त्वं धर्मचक्रमिह वर्तयसि स्म भूत्यै करते और रुलाते हैं, उस प्रकार वे श्रापको नहीं रुला पाते।
भूस्वा पूरा क्षितिपतीश्वरचक्रपाणिः॥ पाते तो वे आपके पास भी हैं, पर वे अपनी मनमानी करने में अर्थात रागद्वेषभाव उत्पन्न करने में सफल नहीं इसका अर्थ यह है कि "भाप कुन्थु भगवान्ने पहले राजराज होते, क्यों कि, जैसा उससे पूर्ववर्ती श्लोकमें कहा गया है. चक्रवती होकर पादको यहां कुन्थु मादि समस्त प्राणियोंकी 'आपने विद्यारूपी नावसे तृष्णारूपीमदी पार करली है।" दया करनेमे एकचित्त हो ज्वर, जरा और मरणाकी उपशान्ति
रूपी विभूतिके लिये धर्मचक्रका प्रवर्तन किया है।" यहां केवलीमे जन्म, जरा, ज्वर और मरणका प्रभाव प्रमा. मी स्पष्टतः केवली द्वारा ज्वर, जरा और मरणकी णित करने के लिये न्यायाचार्यजीने दो और उल्लेख प्रस्तुत उपशान्तिके लिये प्रयनका विधान किया गया है, न कि किये हैं--'जन्म-जरा-जिहासया' (४१) तथा 'ज्वर-जरा- केवली होनेसे पूर्व उनके प्रभावका । मरणोपशान्य' (1) और कहा है कि "यहां जिहासा और उपशान्ति शब्दोंसे केवली अवस्था पाने पर प्रभाव
यहाँ रह भी विचार करने योग्य है कि केवलीम जन्म, ही विवक्षित है।" जिहासाकी व्युत्पत्ति और व्यवहार-सिद्ध
जरा धौर मरणके प्रभावकी मान्यताका अभिप्राय क्या है? अर्थ 'दूर करनेकी इच्छा' ही होता है और 'उपशान्त्यै' का
यदि इस मान्यताका यह तात्पर्य हो कि केवलीकी वर्तमान
श्रायुका लय और शरीरका अन्त हो जाने पर सिद्ध अवस्था शब्दार्य होता है 'उपशान्तिफे लिये'। पर चूंकि न्याया
मे फिर उन्हें कभी जन्म, ज्वर, जरा और मरणकी बाधाएं चार्य मीने कहा है कि यहां इन शब्दोंके द्वारा प्रभाव ही विवक्षित है, श्रतएव उस विवक्षाको समझनेके लिये हम
नही होगी, तब तो इससे कहीं विरोध उपस नहीं होता, पूरे पयों पर ध्यान देना आवश्यक प्रतीत होता है। प्रथम
कों कि केवलीने कोई नया आयुषन्ध किया ही नहीं है, पद्य पूरा इस प्रकार है
इस लिये सिद्धगतिको छोर किसी संसारगतिमें उन्हें
जाना ही नहीं है। किन्तु जिस शरीरमं केवली अवस्था अपत्यविनोत्तरलोकतृपण या तपस्विनःकचन कर्म कर्वन। उपन्न हुई है उसका मनुष्ययोनिमें जन्म हुना ही है, उप भवान्पुनर्जन्मजगजिहामया त्रयीं प्रवृत्तिममधीरवामान
शरीरका योग भी उनके विधमान है वह शरीर माता
असाता बेदनीय कर्मोदयके वशीभूत भी है, उनकी मनुप्यअर्थात् "कितने ही तपस्वी पुन, धन व परलोकी श्रायु भी क्रमश: ताण हो ही रही है और वह समय भी तृष्णाप कर्म भरते हैं. किन्नु पापने पुनर्जन्म और जरामे आने वाला है जब उनकी समस्त प्रायुका क्षय हो जानेसे बचने के विचारमं अपनी मन, वचन और काय-सम्बन्धी उम शरीरका वियोग हो जावेगा। तब फिर उसी अवस्था नीनों प्रवृत्तियोका निरोध किया। यहां केवली में उन मे उनके जन्म, ज्वर, जरा और मृत्युका प्रभाव कैसे माना वृत्तियोंके अभावकी तो कोई विवक्षा नहीं पाई जाती, बल्कि जा सकता है? यह स्पष्ट प्रतिपादन पाया जाता है कि ये प्रवृत्तियां उनमें विद्यमान हैं पर वे उनका प्रभाव करने में प्रयत्नशील है।
इस विवेचनका यह निष्कर्ष निकलता कि प्राप्त और इसीके लिये वे अपने नीनों योगोंका निरोध कर
मीमांसा और युक्यनुशासनमें तो स्वयं न्यायागयंजीकी ही अयोगी हो जाते हैं। इसके पश्चात ही बे उम बाधांसे
रत्नकरण्डश्रावकाचारकी मान्यताका पोषक कोई प्रमाण वियुक्त हो पाते हैं।
प्राप्त नहीं हो सका, एवं स्वयंभूस्तोत्रम जहाँ उन्हें
उम मान्यताकी पुष्टी दिखाई दी वहां भी यथार्थन: दूसरा पद्य पूरा इस प्रकार है--
उसका कोई विधान सिद्ध नहीं होता।