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अनेकान्त
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प्राप्तमीमांमाकी तरह विद्यानन्दकी प्राप्तपरीक्षामें भी देखरहे हैं। टीकाकारोंका आप्तमें सुधादिके अभावको माननेका
चौथे विद्यानन्दके' उल्लेखानुसार स्वामी समन्तभद्रने अभिप्राय उपस्थित करता है:अपनी प्राप्तमीमांसा श्रा. उमारवातिके सस्वाथसूत्रके जिस प्राप्तमीमांसाकी पहली कारिका निम्न प्रकार है:'मोक्षमार्गस्थ नेतारम्' मङ्गलश्जोकपर रची है उसमें देवागमनभोयानचामगदिविभूतयः । वीतरागत दि तीन ही अपाधारण बालोंका मुख्यत: और मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वममि नो महान ॥११॥ लक्षणरूपसे प्रतिपादन है। अत: इन्ही तोन अमाधारण अर्थात् - 'देवोंका भाना, पाकाश में चलना, चामरोंका गुणों को प्राप्तमीमांसा श्राप्तकी स्वरूपको टमें प्रविष्ट किया दुरना प्रादि विभूतियाँ तो भगवान की तरह विद्या मंत्रादिसे गया है। उसीका अनुसरण विद्यानन्दने किया है और उन विभूतियोंको दिखानेवाले मायावियों-मकी श्रादि प्राप्तके स्वरूप प्रतिपादनार्थ प्राप्नपरीक्षा लिखी है। रोनों धर्मप्रवतंकोमें भी देखी जाती हैं । प्रत मात्र इन विभूही ग्रन्थकर्ताओंका यह प्राशय कदापि नहीं है कि प्राप्नमें तियोंसे ही आप हमारे (परीक्षाप्रधानियों-तार्किकोंके) बडे उन्हें आधादि प्रवृत्तियोंकाअभाव अस्वीकृत हो। सिर्फ उनके नहीं हैं।' प्रकलङ्क, विद्यानन्द और वसनन्दि तीनों ही टीकाप्रभावप्रतिपादनकी मुख्यत: अविवामान है । इसके कारोंका इस विषयमें एक ही श्राशय है और वे सब देवाकारणकी भी जब हमने खोज की तो प्राप्तमीमांसा और गमादिकको श्रागमाश्रय बतलाते हैं । अर्थात्-श्राज्ञाप्रधानीप्राप्तपरोक्षामे उपलब्ध होगया । अर्थात् दोनों ही प्राचार्य श्रागमवादी (कुन्दकुन्दादि) भले ही देवागमादिको परमात्मा प्राप्तके स्वरूप में ऐसे विशेषणोंको हो परीक्षाप्रधानियों का चिन्ह माने पर युक्ति-हेतुमे परमात्माको सिद्ध करनेवाले युक्ति-हेतुसे प्राप्तको सिद्ध करनेवालों (नकि प्राज्ञाप्रधानियों) हम युक्तिवाशी-परीक्षाप्रधानी मात्र देवागमादिको हेतु नहीं को दृष्टिमे रखकर देना चाहते हैं जो दूसरों के द्वारा माने बना सकते हैं, क्योंकि देवागमादि विभूतियाँ मायावियों में गये प्राप्तों (प्राप्तानामों)-देवों, कपिल, महेश्वरादिकोंमें पायी जाने से व्यभिचारी हैं । मूलकारिका और उसके. अनाप्तत्वका विधान और प्राप्तस्वका व्यवच्छेद करके वीर व्याख्यानमे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि यहां उन्हीं भागजिनके ही प्राप्तपनेकी मिद्धि करते हैं।
मोक्त विभूतियों-कतिपय अतिशयोका प्रतिपादन किया प्रो. सा. मे जो ढग अख्तियार किया है उस परमे गया है जो अरहन्तके ३४ अतिशयोंमें प्रतिपादित है और यह आशंका होती है कि यदि प्राप्तमीमांसा और उसकी जिनका आप्त-भगवानमें अस्तित्व स्वीकार किया गया है। टीकानों में भी केवलीमें जुधादिके अभावको माननेका अत: देवोंका पाना श्रादि विभूति-अतिशय यद्यपि भगवान प्राप्तमीमांपाकार और उनके टीकाकारका अभिप्राय बतला मे मौजूद है पर दूसरों-अनाप्तों में भी पाया जा सकनेमे दिया गया और सप्रमाण सिद्ध कर दिया गया तो प्रो. वह अन्ययोव्यबरछेदपूर्वक परमात्मा (श्राप्त) का ज्ञापक सा. उपेमानेंगे या नहीं, सन्तुष्ट हो सकेंगे या नही? चिन्ह (व्यावर्तकलक्षण) नहीं है । उपलक्षण मात्र है। और अपना मन बदलगे या नहीं ? परन्तु श्राशंका करके यह बात इस कारिका और इसके व्याख्यानमें प्रक्ट की गई हम अपने कर्तव्य . पालनमें शिथिल होना नही है। अब प्रातमीमांसाकी दूसरी कारिकाको गौरमे देखे जो चाहते, प्रो. सा. का मानना न मानना, सन्तुष्ट होना न इस प्रकार है :होना उनके प्राधीन है। हमे तो विचार क्षेत्रमे अपने अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहादिमहोदयः। कर्तव्यको पूरा करना ही चाहिए । अत: मैं प्राप्तमीमांसा दिव्यः सत्यो दिवौकस्वम्ति गगादिमत्सु मः ॥२।। और उसकी टोकानी गरसे भी प्राप्तमीमांसाकार और इस कारिकामें कहा गया है कि 'अन्तरंग और बहिरंग १ देखो, श्राप्तम मामाका. १ व २ की अकलंक तथा यह शरीरादिका अतिशय भी, जो कि दिव्य है-चक्रवाविद्यानन्दकी टीका और
दिकोंमे भी नहीं पाया जाता है (अमानुषीय है) और सत्य 'इत्यसाधारणं प्रोक्तं विशेषणमशेषतः । परसंकल्लिनासाना १ 'चउसटिचमरसाहो चउर्त सहि अइमएहि संजुत्तो' व्यवच्छेदपमिद्धये"। श्रामपरीक्षा श्लोक ३।
-दर्शनप्रा. गा० २१