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किरण १-१०
क्या रत्नकरण्ड श्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नही है?
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जो स्वास ध्यान देने योग्य है । मैं उसे यहां संक्षेपमें प्रस्तुत (अनेक कारणों) से होता है, अकेले एक कारण नहीं। करता हूं:
इसी कार्योत्पत्तिके सामान्य नियमपर प्रसिद्ध दार्शनिक दिगम्बर और श्वेताम्बर सभी काग्रंथों में मूल कर्म- शान्तरक्षित' और वाचस्पतिने भी विशेषत: जोर दिया है। प्रकृतियां पाठ बतलाई गई हैं और उनकी क्रम व्यवस्था यदि प्रो. सा. ने कार्योत्पत्तिके इस नियमपर अब तक इस प्रकार दी गई- ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ ध्यान न दिया हो तो वे कृपया अवश्य दे ले। इस लिये वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ पायु, ६ नाम, ७ गोत्र और प्राप्तमीमांसामें मोहनीयका प्रभाव प्रतिपादन करनेसे ही ८ अन्तराय । इनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय क्षुधादि दोषोंके प्रभावका भी प्रतिपादन होजाता है। और अन्तराय इन पर कोको घातिकर्म कहा गया है तीसरे, कोई भी अन्धकार इसके लिये बाध्य नहीं और यह बतलाया गया है कि ये जीवके अनुजीवी गुणोंका होता कि वह अमुक विषयक ग्रन्थम ही अमुक विषयका घातन करते हैं। (देखो, गो० क. गा०८, . ) तथा साङ्गोपाङ्ग वर्णन करे अथवा मुख्य और अमुख्य फक्षित वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र इन शेष चार कर्मोको और अफलित सभी तरहका प्रतिपादन करे । यदि ऐसा हो अघाति कर्म सूचित किया गया है । मूल कर्मप्रकृतियोंकी तो विद्यानन्द स्वामी प्राप्त में सुधादि प्रवृत्तियोंके प्रभावके इस प्रकारमे क्रम-व्यवस्था करने वाले कर्मसिद्धान्तकागेमे के समर्थक और पोषक थे । स्वयं प्रो. सा.के शब्दों में जब यह पूछा गया कि वेदनीय यदि अघातिप्रकृति है तो वे केवलीमे क्षधादिवेदनाओंके प्रभाव सम्बन्धी मतके उसे अघातियोंके साथ ही परिगणित करना चाहिए ? प्रबल पोषक थे । और उन्होंने प्राप्तके ही स्वरूपकी घातियोंके मध्यमे और वह भी मोहनीयके पहिले उसे क्यो मीमांसा (परीक्षा) करने के लिये श्राप्तपरीक्षा' नामका गिनाया? इसका गृढ रहस्य क्या है ? इस प्रश्नका जो महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा है तथा उसपर स्वय ही 'श्राप्तमहत्वपूर्ण खुलासा कर्मसिद्धान्तके व्यवस्थापकों ने किया है परीक्षालंकृति' नामकी सुन्दर टीका भी गद्यमे लिखी है। वह इस प्रकार है:
तब उन्होंने भी वहां क्यों नही उसके मूलभागमे अथवा घादि व वेयणीयं मोहस्स बलेण घाददे जीवं । टीकाभागमे क्षधादिके प्रभावरूपसे प्राप्त के स्वरूपका प्रतिइदि घादी मज्झं मोहस्सादिम्हि पढिदं तु ।। पादन किया ? असल में बात यह है कि क्षबादि प्रवृत्तियों
-गो. क. १६ ॥ का अभाव धातिकर्मजन्य अतिशय है । जो केवल ज्ञानादिके अर्थात्-वेदनीयकर्म मोहनीयकी सहायतामे घातिया
अतिशयोमें है। अत: वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेकर्मोकी तरह जीवके गुणोका घातन करता है इस लिये
शिताका (युक्तिशाखाविरोधी वाक्वका) प्रतिपादन करनेसे वेदनीयको धातिकर्मोके मध्यमें और वह भी मोहनीयके
उन लोकोत्तर अतिशयोंका-सुधारिके प्रभावका प्रतिपादन पहिले रखा गया है। वास्तवमें वेदनीय राग-द्वेष जन्य ।
भी अनुषगतः हो जाता है। इस लिये प्राप्तमीमांसाकार इष्टानि बुद्धिमे सहकृत होकर सुग्व-दुखका वेदन कराता है।
राता है। प्राप्तमीमांसामे ही तुधाद प्रवृत्तियोके केवलीमें प्रभावको प्रत वह अपने सम्बदुखोत्पादनरूप कार्यमें मोहनीय
कराठत: बतलाने के लिये बाध्य नहीं हैं । जैसा कि हम सापेक्ष है। यह इस गाथासे भले प्रकार प्रकट होजाता है।
१-२"न किञ्चिदेकमेकस्मात्सामग्रन्या मर्वसम्भवः । इस व्यवस्थासे ही हमे समझ लेना चाहिए कि वेदनीय
____एकं स्यादपि सामग्रचोरित्युक्तं तदने ककृत् ॥" को मोहनीयके पहिले कहनेका कर्म सद्धान्तकारोंका यही
-वादन्यायटी० पृ० ३६, भामती पृ. ४५४ । अभिप्राय रहा है। अतएव केवलीमे अकेले वेदनीयका ३ देवी, तत्वार्थश्लोकवानिक पृ. ४६२ । उदय विद्यमान रहनेसे क्षुधादि वेदनाओंका उत्पादन नहीं ४ "श्रथ यादृशो धातिक्षयजः स (विग्रहादिमहोदयः-नि:हो सकता है।
स्वेदत्यादि: अतिशयः) भगवति न तादृशो दवेषन्यायका सर्वमान्य सिद्धान्त भी है कि 'सामग्री- येनानै कान्तिक: स्यात् ..."जनिका कार्यस्य नैक कारणम्' अर्थात हरेक कार्य सामग्री
-अष्टस. प्राप्तमी० का ।