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अनेकान्त
[वर्ष ७
अभिमत स्वामी समन्तभद्र-नियुक्तिकारभद्रबाहुने भी अपनी ग्रहण बतलाते हैं । यद्यपि रखकरण्डमें सीधे तौरसे भावश्यकनियुक्ति गाथा ६३१ में भगवान महावीरको केवली ही उनका प्रभाव बताया गया है किन्तु स्वयम्भूस्तोत्रमें हो जानेपर जन्म, जरा और मरण इन तीन दोषोंसे इश पचके द्वारा देह और देही दोनोंके लिये सुधादिप्रतिरहित प्रकट किया है। यथा
कारकी भनुपयोगिता बमलाकर सपारी जनोंमें सद्भाव और 'श्राभट्ठो य जिणेणं जाइ-जरा-मरण-विष्पमुक्केणं। केवली में प्रकारान्तरसे उनका प्रभाव सूचित किया गया है।
नियुक्तिकार भद्रबाहुने ग्यारहों गणधरोंकी शकाओंके यदि प्रो. सा. ने 'चुत्' शब्नके साथ लगे 'मादि' शब्दकी निवारक भगवान् महावीरको अनेक जगह इसी प्रकार पोरसे उपेक्षा न की होती तो इस पच और रत्नकरण्डके 'जन्म, जरा और मरणा' रहित बतलाया है।
पद्यके अर्थ में सर्वथा प्राकाश पातालका अन्तर न बतलाते । सबको वहींसे देख लें।
केवली में सुधादिका प्रभाव समर्थनार्थ स्यम्भूस्तोत्र इस तरह स्वयं स्वामीसमन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्रगत का ही एक दूसरा ७१ वौँ पद्य यह कहते हुए मैंने प्रस्तुत उल्लेखोपरमे केवलीमें स्पष्टत: जन्म, जरा, ज्वर और मरण किया था कि 'भोजनादि करना और इन्द्रियविषयसुखोंका इन चार दोषोंका प्रभाव प्रतिपादित एवं समर्थित अनुभवन करना तो मनुष्यका स्वभाव है, मनुष्य-स्वभावसे होजाता है।
___रहित केवली भगवान्का नहीं वे उस स्वभावसे सर्वथा अब रह जाते हैं केवल शुधा और तृषा ये दो दोष, छुट चुके हैं. और परमोश भलौकिक अवस्थाको प्राप्त होचुके सो प्रथम तो अब उनका कोई महत्व नहीं, दूसरे, उनका है। मनुष्य और केवलीको एक प्रकृतिका क्यों बतलाया प्रभाव प्रतिपादनार्थ मैंने स्वयम्भूम्तोत्रका 'क्षुधादिदुख- जाता है ? स्वय स्वामी समन्तभद्र क्या कहते हैं ! देखिये प्रतिकारतः स्थितिन' दि १८ वा पद्य उपस्थित किया -'और अन्तमें दोनों पोपरसे यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया ही था और उसपरसे यह कहा था ।क क्षुधादि वेदनाओंके था'--इससे यह निर्विवाद प्रकट है कि समन्तभद्र प्राप्तको प्रतिकारसे न शरीरकी स्थिति है और न प्रास्माकी'। जब यह सुधादिदोषरहित मानते हैं।' परन्तु प्रो. सा० को यह मेरा सामान्यजनोके लिये उपदेश है तब यह स्वयं सिद्ध होजाता कथन 'निरी कल्पना' जान पड़ा है और इस ७५ वें पद्यमें है कि केवली भगवान इनसे रहित होचुक हैं- उन्हें न तो 'केवजीके क्षुधादि वेदनाओंके प्रभावके प्रतिपादनकी लेश भूख-प्यासकी वेदना होती है और न उसके दूर करनेके मान भी संभावना न पाई जानेका उल्लेख करते हैं । मैं लिये भोजन-पानादिको ग्रहण करते हैं। अन्यथा उनका इस सम्बन्ध अधिक कुछ न कहकर इतना ही बतला यह उपदेश केवल 'परोपदेशे पाण्डित्यम्' कहलायेगा। देना चाहता हूँ कि यह मेरी निरी कल्पना नहीं है। इस अत: इस पचहा फलित यही है कि केवलीके शुधा और बातको कौन अस्वीकार कर सकता है कि कवलाहारादि तृषाकी वेदना नहीं होती। तीसरे केवलीके जब अनन्त सुख करना मानवप्रकृति है। रोग होना, बुढ़ापा आना, मरण सर्वदा मौजूद है ('शर्मशाश्वतमवाप शङ्करः') तब उनके होना, जन्म लेना आदि ये सब तुच्छ प्रवृत्तियों मनुष्यकी वेदना हो भी कैसे सकती है ? मैंने पूर्व लेखमें यह कहा था है ? फिर केवलीने तो इस मानवप्रकृतिको प्रतिक्रान्त कर कि स्वयम्भूस्तोत्रमें दोषका स्वरूप वही समझाया है जो दिया है। यहां तक कि वे देवताओं में भी देवता हैं अर्थात् निकरण्डमें है' हम मेरे कथनपर आश्चर्य व्यक्त करते हुए उनके भी ऊँचे हैं. अत एव केवली परम देवता हैं । इस प्रो. सा. लिखते हैं कि "रत्नकरण्डके छठवें और स्वयम्भू. भावको ही मैंने स्वयं स्वामी समन्तभद्रके स्वयम्भूम्तोत्रगत स्तोत्रके १वें पद्यमें यदि कोई साम्य है तो केवल इतना 'मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्' इत्यादि पद्यद्वारा प्रकट किया था। ही कि दोनों पद्य 'क्षुत्' शब्दसे प्रारम्भ होते हैं। पर उनके इस पचको ही प्राधार बना कर पूज्यपादके उत्तरवर्ती अर्थ में पाकश-पातालका अन्तर है"। आप यह भूल जाते और प्रकलंकदेवके पूर्ववर्ती पुरातनाचार्य पात्रस्वामी अपने हैं कि स्वयम्भूस्तोत्रमें 'आदि' शब्दका प्रयोग निहित है पात्रकेशरी स्तोत्रमें निम्न प्रकार कहते हैं :-- और जिसके द्वारा टीकाकार प्रभाचम्दाचार्य पिपासादिकका अनन्यपुरुषोत्तमो मनुजनामतीतोऽपि स