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किरण E-१०]
क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं
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मनुष्य इति शस्यसे त्वमधुना नरैर्वालिशैः। वारस चेव य वासा मासा छच्चेव अद्धमासो य। का ते मनुजगर्भिता क्व च विरागसर्वज्ञता वीरवरस्सभगवो एसो छउमस्थपरियाो ।५६६। । न जन्म-मरणात्मता हि तव विद्यते तत्वतःारश अत: पावश्यकनियुक्तिकारके मतसे भी कंपनी में स्वमातुरिह यद्यपि प्रभव इष्यते गर्भतो कवलाहारके भभावकी स्पष्टत: पुष्टि होती है। -मागे मलैरनुपसंप्लुतो वरमरोजात्रेऽम्बुवत् । नियुक्तिकारने बीरके विहार, शमवशरणकी रचना, गण. हिताहितविवेकशून्यहृदयो न गर्भेऽप्यभूः धरोंका शङ्का-समाधान और उनके उपदेश-प्रवर्तनका ही कथं तव मनुष्यमात्रमहशत्वमाशचते ? ।२६। विस्तृत कथन किया है। उनने ३० वर्षकी शेष अवस्थामें न मृत्युरपि विद्यते प्रकृतमानुषस्येव ते । उन्होंने इस इस तरह और इतनी पारणाय की-कवलामृतस्य परिनितिन मरणं पुनर्जन्मवत् हार किया, मादिका बिल्कुल उल्लेख नहीं किया है। यदि जरा च न हि यद्वपुर्विमलकेवलोत्पत्ततः । केवली अवस्थामें भगवान् महावीरने पारणा की होती प्रभृत्यरुजमेकरूपमतिष्ठते प्रामृतेः ॥ २७॥ अथवा सम्भव होती तो कोई वजह नहीं कि ये उसका भी
पात्रस्वामीके निम्नपचको भी दे देनेका लोभ मैं संवरण वर्णन न करते । इससे स्पष्ट है कि प्रो. सा. जिन्हें स्वामी नहीं कर सकता जहां जिनेन्द्र में सुधादिका प्रभाव स्फुटतया समन्तभद्र बतला रहे हैं उन नियुक्तिकार भद्रबाहुके प्रतिप्रदर्शित किया गया है
पादनानुपार भी केवली में कबलाहार सिद्ध नहीं होता। प्रसन्नकुपितात्मनां नियमतो भवेदुःखिता। ___एक जगह तो नियुक्तिकार भद्रबाहुने यह भी प्रतितथैव परिमाहिता भयमुपद्रतिश्वामयैः।। पादन किया है कि यदि जिनेन्द्र भगवान् सतत् उपदेश तृपाऽपि च बुभुक्षया च न च संमृतिश्छिद्यते। देते हैं तो सुननेवालों सकके लिये भी- यदि वे भगवानके जिनेन्द्र भवतोऽपरेषु कथमानता युज्यते ।३४। पास सुनने में अपनी सारी आयु भी बिता देवे-भूख, प्यास,
अत: स्वयम्भूस्तोत्रके उक्त ७५ वें पद्यमें जो मैंने उण्ड, गर्मी, परिश्रम और भयकी बाधा नहीं होती। सब आधादि दोषोंके अभावका कथन किया है वह मेरी 'निरी जिनके निमित्तसे दूसरों तकको जीवनपर्यन्त कोई भूखकल्पना नहीं है । वह तो पूर्वाचार्य परम्परागत प्रतिपादन है। प्यासादिकी वाधा नहीं रहती तो उन्हें-केवलीको स्वयं
यह मैं एक खास बातका और उल्लेख कर देना भूख-प्यासादिकी कैसे बाधा हो सकती है? यह गम्भीरताके चाहता है जो ऐतिहासिक दृष्टिसे बड़े महत्वकी है । वह साथ तस्वदृष्टिसे विचारना चाहिये। भद्रबाहुकी पावश्वक यह कि श्वेताम्बर परम्पराके प्रसिद्ध और प्रमुख प्राचार्य नियुक्तिगत वह गाथा निम्न प्रकार है:निर्यक्तिकार भद्रबाहने जिन्हें हमारे प्रो. सा. भाप्तमीमांसा सव्वाउ यि सोया खवेज जइइ सययं जिणो काए । औरचयिता स्वामी समन्तभद्र बतलाते हैं, अपनी प्राव. मोउगह-खुप्पिासा-परिमम-भए अविगणेतो ॥५७६।। श्यकनियुक्ति (गा. ५२८ से १३६ ) में भ. महावीरके प्राचार्य पूज्यपादने (४५० ई०) अपनी मन्दीश्वर केवली अवस्थामें कवलाहारको स्वीकार नहीं किया । केवल भक्ति (५८) में परहन्तके चौतीस प्रतिशयोंका वर्णन करते उन्होंने उनके सदस्थ-अवस्थाकाल--१२ वर्ष और ६ हुए केवलज्ञानके १० प्रतिशों में केवलीके 'भुक्त्यमाव' महीने तथा १५ दिन की पारणाओं को ही स्वीकार किया (कवलाहारके प्रभाव) को स्पष्टतया बतलाया है। विद्याहै और एक एक करके गिनाते हुए उन्होंने कुल ३५६ ही नन्दाचार्यने बड़े जोरोंके माथ तत्वार्थश्लोकवार्तिक पारणाये बतलाई है। केवली अवस्थाकी किसी एक भी (पृष्ठ ११२)में केवलोके कवलाहार और सुधादि वेदमानों पारणाका उल्लेख उन्होंने नहीं किया। यहां आवश्यक का प्रभाव मयुक्तिक प्रदर्शित किया है। जैसा कि मैं पूर्ण नियुक्तिकी उपयोगी दो गाथाएँ दी जाती है :-- लेखमें भी कह चुका हूंतिरिणसए दिवसाणं अउणावण्णं तु पारणाकालो। योगदर्शनके प्रवर्तक महर्षि पातञ्जलिका माध्यात्मिक उक्कुडुयनिसेज्जाणं ठियपडिमाणं सए बहुए ॥५३५।। विद्याके क्षेत्रमें अच्छा स्थान माना जाता है। उन्होंने