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अनेकान्त
। वर्ष ७
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आध्यात्मिकविद्याके बहुचमत्कारों को प्रदर्शितकरते हुए योगी जरा भी न होंगे--'जरा च न हि यदपुर्विमलकेवलोपमें भूख और प्यासकी बाधाकी निवृत्ति होना सम्भव प्रतिपातितः। प्रमृत्यहजमेकरूममवतिष्ठते प्रामृतेः॥' वास्तवमें दित किया है। जैसा कि योगदर्शनके निम्न सूत्रसे स्पष्ट है:- 15 हजार शीलोंको धारण करने वाला और शरीरबला
__ 'कण्ठकृपे क्षुत्पिपामानिवृत्तिः' ३-३०। धान हेतुभूत शुभ पुद्गलोंको ग्रहण करने वाला प्रारमा
अर्थात-उस विशिष्ट योगीके कण्ठकूपमें भूख-प्यासकी नहीं, नहीं परमात्मा ज्वर और जरासे प्राकान्त नहीं हो निवृत्त होजाती है - फिर उसे जीवन्मुक्त अवस्थामें भूख सकता। 'न योगा न रोगा न चोद्वेगवेगाः' (सिद्धसेन) प्यासकी बाधा नहीं रहती - वह नष्ट होजाती है। 'अजर', ( समन्तभद्र) 'जाइ-जरा-मरणविरमुपकेण'
इस उपर्युक्त विवेचनसे यह स्पष्ट होजाता है कि केवल्लीके (भद्रबाहु) श्रादि पुरातनाच र्यवचन हमें यही बतलाते हैं। झुधा और पिपासा इन दोदोषोंका प्रभाव भी मर्वथा होजाता भोगभूमियों और देवोंकी भी आयु प्रतिक्षण क्षीण है। और यह स्वामी समन्तभद्रके लिये भी अभिमत है। होती है और जन्म तथा मरण वे भी ग्रहण करते हैं
प्रो. सा. केवलीके जन्म, ज्वर, जरा और मृत्युके साता-असाता का दय उनके भो विद्यमान है, परन्तु न प्रभावकी असम्भवता बतलाते हुए लिखते हैं:-''जिस तो उन्हें जीवनभर कोई रोग ही होता है और न बुढ़ापा ही शरीरसे केवली अवस्था उत्पन्न हुई है उसका मनुष्ययोनिमे आता है। ऐसी हालत मे भोगभूमियों और देवोंसे भा जन्म हुअा ही है, उस शरीरका योग भी उनके विद्यमान महान् केवली परमात्माके ज्वर और जराके अभावकी है, वह शरीर साता-असाता वेदनीय कर्मोदयके वशीभूत भी असम्भावता बतलाना अनुचित है वह न तो युक्ति और है, उनकी मनुष्य प्रायु भी क्रमशः क्षीण हो ही रही है अनुभव से ही सम्बन्ध रखता है और न श्रागम से ही। और वह समय भी पाने वाला है जब उनकी समस्त प्रायु केवलीके यद्याप असाता आदि कर्म विद्यमान हैं और का क्षय होजानेसे उस शरीरका वियोग होजावेगा। तब उनका उनके सव भी है परन्तु वे मोहके न होने से अपना फिर उसी अवस्थामें उनके जन्म, ज्वर, जरा और कार्य करनेमे सर्वथा असमर्थ हैं । यह दि. साहित्यसे तो मृत्युका प्रभाव कैसे माना जा सकता है ?" यदि प्रो. सा. स्पष्ट है ही। साथमे नियुकिकी निम्न गाथा (५७३ से भी ने केवजीके जन्मादि दोषोंके श्रभावकी मान्यताके सम्बन्धमे प्रमाणित हो जाता है .-- पूर्वाचार्योंके अभिप्रायको पहले जान लिया होता तो वे इस "अस्सायमाइयाओ जाविय असुहा हवंति पगडीओ। प्रकारका शायद प्रतिपादन न करते । जिन कुन्दकुन्द, स्वामी णिवरसल वोव्य पए ण होति ता असुहया तस्स ॥" समन्तभद्र और नियुक्तिकार आदि महान् प्राचार्योंने जन्म- जब असाताका रदय अशुभ कुफल नहीं देता तब जरा-मरणादिका कवलीके प्रभाव प्रतिपादित किया है वे क्या भूख-प्यासका दुख उनके कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं यह नहीं जानते थे कि केवल का मनुष्ययोनिमें जन्म हुआ है हो सकता। अतः इस सब विवेचनाका निष्कर्ष यह हुआ साता-मसात वेदनीय काका उदय भी उनके है, आयुके कि केवलीके क्षुधा, तृषा, जन्म, ज्वर, जरा और मरण इन स्पर्द्धक भी प्रतिसमय क्षीण होरहे हैं और वर्तमान शरीर ६ दोषोंका भी प्रभाव हो जाता है। केवलीके जिन शेष का त्याग भी अवश्य होगा ? फिर भी उन्होंने जो उनके कर्मोंका उदय और सत्व विद्यमान है उनसे ही ये दोष जन्मादि दोषोंका अभाव बतलाया है। उसका रहस्य वह पैदा नहीं होते, बल्कि उनका वास्तविक ऊनक मोहकर्म है है कि केवलीके मोहनीयका नाश होजानेमे अब पुनर्जन्म न और उसका देवलीमें प्रभाव हो चुका है। अतः इन दोषों होगा-'समूलं निभित्रं जन्मनिगलम्', और न अब पुन- का अस्तित्व उनके नहीं है और वह स्वामी समन्तभद्रको जन्म बाला साधारण मरण होगा--म मृत्युरपि विद्यते अभिमत है। जैसा कि हम उल्लेखखोंपरसे देख चुके हैं। प्रकृतमानुषस्येव ते । मृतस्य परिनिवृतिनं मरणं पुनर्जन्म- इसलिये इस विषयमे सैद्धान्तिक भी कोई कठिनाई नहीं है। बतच कि केवळीके मोहादि घातिकर्म नष्ट होचुके और
[ क्रमश ] केवलज्ञान पैदा होगया है इसलिये अब उनके ज्वर और वीरसेवामन्दिर, सरसावा