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स्वावलम्बन और स्वतन्त्रता
( जमनालाल जैन, अर्धा )
स्वावलम्बन और स्वतंत्रता दोनों शब्द, इतने प्रचलित चाहिए और उसके होनेके बाद तो हम मापसे-माप ही. और रूढ होगए हैं कि, उनका नया अर्थ प्रतिपादन करने यह अनुभव करने लग जावेंगे कि किसीको अपने अधीम की आवश्यकता, कमसे-कम प्राज तो प्रतीत नहीं होती। कैसे रखा जाम्यकता है, जब कि सब अपने बंधु है--यही इन दोनोंका परस्परमें इतना घनिष्ट समम्बन्ध है कि किसी स्वतंत्रता प्रचारका मुख्य साधन है। और इसी लिए कहा एकको अलग नहीं रखा जासकना। स्वावलम्बनको छोड़ जा सकता है कि दोनों एक दूसरेस मिन्न न होकर एक कर स्वतंत्रता और कोई वस्तु ही नहीं है। जहां स्वावलंबन है-अभिल हैं। का उपयोग होरहा होगा, स्वतंत्रता प्रापसे श्राप वहां पहुंच इनका महत्व भी बहुत अधिक है। जब स्वावलम्बन जापगी। दोनों शब्दोंके आदिमें पढे हुए 'स्व' अक्षर ही यह और स तंत्रता, हमारे जीवनमें एक रस होकर व्याप्त होजाते पतला रहे हैं कि उनमें पराधीनता, परवशता भीर प्रमाद है, तब हम पाते हैं कि उसके कारण हम अपने धर्म अपने को बिलकुल भी स्थान नही है। किसी दूसरेके अधीन- समाज, अपने राष्ट्र तथा समस्त विश्वका हित सारे ही दृष्टि वशवर्ती होकर रहना ही स्वावलम्बनका अपहरण और कोणोंम, प्रत्येक विषय में, कर सबने में समर्थ हो उठते हैं। स्वतंत्रताका त्याग है। दोनोंकी एकतामे भी हम देख सकते उस अवस्था में हम अपने कतव्योंके प्रति सचेष्ट हो जाते हैं हैं कि उनमें थोडासा अर्थ-भेद, उस समय तक हो सकता और उन्हें करना ही होता है, क्योंकि उस समय हम यह है, जिस समय तक उन दोनोंका एकीकरण न होजाए सस्पष्टतया समझने लगते हैं कि हमारे हाथमे जो कार्य है. अथवा वे जीवनके क्षण क्षणमें व्याप्त न हो जाएँ। स्वावः उसे मरा नहीं कर सकता और यदि कर भा पके तो, लम्बनका अर्थ हम ग्रहण कर सकते हैं भ्रातृभावका विकास उसकी सहायता प्राप्त करना, स्वयं अपने लिए अनुचित हो
और स्वतंत्रताका-स्वाभिमानका महत्व । स्वावलम्बनमें हम जाता है। इस तरह, प्रत्येक व्यक्ति अपने २ कर्तव्योंके पाते हैं कि कोई भी व्यक्ति, अपने भिन्न व्यक्तिको दृमग-- उत्तरदायित्वको समझने लगता है और निकम्मा नहीं रह पराया न समझ कर, आत्मीय समझता है और उसमे सकता । जाति ममाज और राष्ट्रमें बढ़ती हुई बेकारी तथा वैसा ही वर्ताव करना अपना कर्तव्य समझता है कि यह प्रालयको रोकनेके लिये यह मनोवृति अथवा स्वावलम्बन भी मेरे ही समान मेरा एक बन्धु है और जब यह विश्वास की यह पुनीत शिक्षा, एक एमे शस्त्र अथवा अंकुशका काम हद हो जाता है तब वह व्यक्ति किसीको पराधीन या अपने देती है कि जिसके आगे कानुनका डर और ऊपरके प्रध. कब्जे में रख नहीं सकता, तो यह कह सकते हैं कि स्वतंत्रता कारी भी वैमा कार्य अपने अधीनस्थ दासों द्वार। नही करवा स्वावलम्बनका पल्लवित और विकसित रूप है। स्वतंत्रता सकते। क्योकि उसमें स्वके माथ २ किमी एक निश्रित में स्वाभिमान संनिहित होने के कारण उसमें वीरता और व्यक्ति विशेषके लिए अपना कर्तव्य न होकर समस्त विश्व पुरुषार्थका सर्वाङ्गीण अधिकार रहता है ! वीरता और अथवा देशके लिए होता है--पानेकी लालसाका प्रभाव पुरुषार्थ अथवा कर्तव्य-क्षमताके बिना यदि कोई गहे कि होता है, जब कि अधीन होकर कार्य करनेमें इसके विपरीत स्वाभिमान स्थिर रह सकता है, बिलकुल असम्भव बात प्रवृत्ति पाई जाती है। उसमें होता है एक अानन्द और है। अतएव, हम इस तथ्यपर पहुंच सकते हैं तथा इसमे होता क्लेश, यद्यपि कार्य दोनों एक भी होते और निःसंकोचरूपसे कह सकते हैं कि प्रथमतः हमें स्वावलम्बन होसकते हैं। उसमें भेद इतना ही होता है कि पकमें की शिक्षा ग्रहण कर प्रत्येकके प्रति भ्रातृभाव जागृत करना प्रारम-दानकी भावना होती है और दूसरे में प्रारम-प्रतारणा