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अनेकान्त
वर्ष ७
होता है। दूसरे उसमें निजस्वका स्वाभिमान होनेके कारण कि वे स्वप्न में भी पराधीनता और परवशताका विचार नहीं अपने २ कर्तव्यों के प्रति स्वाधीनता रहती है और निजस्वके सकते और इसी लिए अपने जीवनसे सम्बन्धित किसी भी अभिमानके कारण प्रारम-विकासके लिए तरह तरह के साधन छोटे या बड़े कार्यको करनेमें वे अपना सौभाग्य ही नहीं, उपलब्ध होते हैं. प्रात्म-विश्वास और प्रारम-दृढ़ताकी वृद्धि कर्तव्य समझते हैं। होती है। साथ ही इस साहससे प्रारमतेज भी तेजस्वी हो परावलम्बन और परतंत्रता अपने पापमें कोई सद्गुण चमक उठता है, जिसका अंतिम परिणाम होता है अनन्त नहीं हैं। उनका प्रभाव भी जीवनपर. उस योग्य नहीं स्वाधीनताकी उपलब्धि जिसे कह सकते हैं मुक्ति। यह पड़ता जिससे कि जीवनका उत्तरोत्तर विकास हो और क्या कोई कम महत्व अपने आपमें रखती है?
उसमे उन्नतिके लक्षण दिखाई हैं। वर्तमान समयमें, अ. • इस स्वाधीनताका जीवनपर भी अकल्पनीय अथवा भारतीय शिक्षण परिपाटीका हम लोगों पर जो प्रभाव पड़ा अपतिम प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगता है ! केवलमात्र है, यद्यपि हमारा जीवन उसीमें घुला-मिला होनेके कारण हम महत्वको स्वीकार करके हीमो हम कर्तव्योंकी मोर प्रवृत उसे अपने लिए अच्छा समझते हैं, तथापि, वास्तवमें देखा नहीं हो सकते। जब तक किसी बातका हृदयपर प्रभाव जाए तो वह हमारे लिए अनिष्ट और घातक ही सिद्ध हुई नहीं पड़ता तब तक यह माननेको जी नहीं चाहता कि है। अधिकांशत: आज देखा जाता है कि लोग अपने हाथ चास्म-चेतना जागृत हो और जिसके सहारे हम अपने प्रति से पानीका गिलाम भी भर कर पीनेमे अपना अपमान और सजग हो अपने कार्यों की ओर अग्रसर हो सके। स्वाधीनता श्रोछापन समझते हैं और कहते हुए पाए जाने हैं कि क्या का अनुभव करनेके उपरांत हम अपने श्राप में देख सकते यह कार्य करना भी हमारा ही कार्य है ! इस बढ़ापन हैं कि दुर्बलता, कायरता, प्रमाद और दुर्भावनाओंका सर्वथा प्रदर्शनकी भावनाका ही यह परिणाम हमे आज भुगतना अंत हो जाता है। वोरता, पौरुषता. साहस और सद्- पह रहा है कि आपसमें भेद भाव बढ़नेपर कलह होती भावनाओंका उनके स्थानमें निवास हो जाता है। और सब गई और जिसके कारण ढियांस पर-राष्ट्रीय हमपर शासनसे बड़ी बात तो हम अपने जीवनमें तब यह पाते हैं कि चक फेर रहे हैं। जहां ऊँच-नीचकी भावनाका जन्म होजाता किसीके आश्रित रह कर जीवनयापन करना हम अपना है. वहॉपर हृदयकी एकता और प्रेमकी कल्पना भी नहीं अपमान समझते हैं और किसीको अधीन रखने में लजाका की जाती ! जिसके पास पैमा हृमा कि वह फिर नीच होने अनुभव करते हैं। स्वाधीन, स्वावलम्बी और स्वतत्र पुरुषो पर भी अपने पाप ऊँच बन जाता है! को आप देखेंगे कि वे अपने लिए किसीसे कुछ याचना
क व अपने लिए किसीसे कुछ याचना धार्मिक-जगत में भी इसका विष बडे वेगमे फैला है ! करनेकी कामनासे मुक्त होते हैं, वे क्षुधा और तृषास कपडे चातुर्वर्ण व्यवस्थाका प्रतिपादन कर वैदिकोने भेद-भाव और लत्तेके अभावमे, तड़फ २ कर जीवन विमर्जित मानद और ऊँच-नीचता वृक्षको इतनी तत्परताप पल्लवित और से कर देंगे परन्तु उन्हें तरफको मिटाने के लिए किसीको एक विकसित किया है कि श्राज़ भी सर्वत्र उसका विषैला शब्द भी कहना उस तहफसे भी ज्यादा दुःखित करता है। परिणाम दिखाई दे रहा है ! शूद्रोंको वेदाध्ययनके अधिकार उन्हें हल्केसे हल्का और नीचेसे नीचा कार्य करने में भी वंचित रखना, उन्हें धार्मिक कार्यों में भाग लेनेसे रोकना संकोच नहीं होता। उन्हें अपने शिक्षण, पोशाक और और कंबल उनसे सेवावृत्ति करवा कर अपने स्वार्थ और स्थितिपर जरा भी मिथ्या गर्व नहीं होता, वे इसकी भी अहकारकी पुष्टि करनेका ही एकमात्र बीदा जब ब्राह्मणोंने परवाह नहीं करते कि कहीं बृटकी पालिश तो खराब नहीं उठा लिया और तदनुरूप प्राचार शाखौं-स्मृतियोंकी सृष्टि हो रही है। उन्हें तो बस एक चिंता होती है और वह है करने लगे तब कोई भी व्यक्ति सोच सकता है कि उन अपने निजत्वको बनाए रखने के लिए कर्तव्योंको पूरा किस बेचारोंका हश्य क्या कहना होगा ! अपने अधिकार, अहं. तरह किया जाए। कहनेका मरांश यह कि स्वावलम्बन और कार और विद्वत्ताके बलपर चाहे जिस, हर तरह नचाया स्वातंत्रताका उनके जीवनपर इतना गहरा प्रभाव पड़ता है जा सकता।