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किरण ६-१०]
स्वावलम्बन और स्वतन्त्रता
यह तो हुई मामाजिक व्यवस्थाकी बात, लेकिन गत-वर्णवादपर ऐसा कुठाराघात उन्होंने किया है जिसका साविक क्षेत्रसे भी कोई कम आघात भारतीयोंको नहीं प्रत्युत्तर अाज तक भी किसीसे नहीं बन पड़ा !श्वरपहुंचा ! एक ही ईश्वरकी सत्ताको स्वीकार करना, मारे कर्तृत्ववादको उन्होंने चुकटियोमें उबा दिया, भाग्यवादको कर्मोंके फलके दे देने का भार उसीपर लाद देना और उसे हवामें विलीन कर दिया और वंशगत-वर्णवादको धूखही सृष्टिका कर्ता-धर्ता-हर्ता मान लेना इत्यादि निरूपणोंसे धूमरित कर दिया। सच बात तो यह थी कि उनका स्वयं भी कायरता, दुर्बलता प्रादिकी वृद्धि ही हुई है ! लोगोंने का उद्धार स्वावलम्बन और स्वतंत्रताके पथपर हुभा था, मान लिया है-हमारा कार्य तो केवल ईश्वरकी उपासना, तब यह कब संभव हो सकताथा कि वे तूसरोंको उससे वचित अर्चना वा पाराधना करना मात्र है. हम स्वयं तो ईश्वर हो रखनेके पथपर चलनेका भादेश देते ! स्वावलम्बन और ही नहीं सकते ! इससे हताश होगये, प्रारम-दृढ़ता प्रारम स्वतत्रताकी रचा उनके शब्दों में मात्मरक्षा थी, और जहां तेज और प्रारम-शक्तिसे उत्तरोत्तर हीन हो कायर बन बैठे! यह नहीं है, वहां प्रारमघात है और यही मुक्तिके मार्गका वीरता, स्वाधीनता और भ्रातृ-भावका लोप है। चना! कण्टक है। उन्होंने कहा "प्रत्येक जीव अपने आप में भर लोग ऐशोमारामकी ओर प्रवृत्त हो उठे, प्रारम-साधना जैसी है, किसी अन्यकी आराधना, उपासना और उससे याचना अनुपम वस्तुकी पोरसे अपरिचित होगए ! और क्यों न हों करनेकी आवश्यकता नहीं। कोई किसीको सुख दुख नहीं जब उनके महन्तजी यह कहते हुए पाए जावे कि 'भाई, पहुंचा सकता । 'जैमी करनी तैसी भरनी' ही उनका मुख्य तुम ईश्वर तो हो ही नहीं सकते !' क्या गरज पड़ी है किसी सिद्धान्त था। पुरुषार्थ तस्वका प्रतिपादनकर उन्होंने स्पष्ट को कि वह व्यर्थ ही बीहड बनमें जाकर गर्मी, सर्दी और घोषित कर दिया है--भाग्यवाद केवल थोथी कल्पनामात्र वर्षाके महान कष्ट सहन करे । उन लोगोंने अपना एक है, इसके अपनानेपर व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता और स्वाधी. सूत्र बना लिया कि-'अजगर करे न च करी, पंछी करे न नतामे विमुख हो परावलम्बी और परवश होजाता है जिस काम' फिर भी सबको भोजन मिल ही जाता है । और का परिणाम होता यह है कि उसकी अनन्त भात्मशक्ति इसी भाग्यवादने हमारे मनमें जिस दुर्बलताका घुन जमाया विलुप्त हो जाती है ! मनुष्य को अपने कर्म-कर्तव्यपर विश्वास है. वह महान् घातक है । मालूम नहीं इस भाग्यवाद, रखना चाहिए. भाग्यकं भरोम बैठ हमारे हाथ कुछ भा नहीं ईश्वरवाद और वर्णवादकी कट्टरता का कब अंत होगा। आने वाला।" वर्णव्यवस्थाका उपदेश देते हुए उन्होंने
इसका अर्थ श्राप यह न समझ लें कि जैनधर्म भी इम यही कहा कि "वंशपरम्पराका इसमें कोई सम्बन्ध नहीं, से अपना न रह सका। परन्तु वास्तवमे बात यह नही है, जो व्यक्ति जैसा ऊँच या नीच कार्य करेगा, वह उसी पथका है तो यह कि जैन लोग अज्ञानतावश, संसर्गवश, रूदि- मामाजिक दृष्टि में अधिकारी होगा, लेकिन निश्चयमे तो वश, भले ही उन वादोंके पालनकर्ता किसी कालमे होगए उसमें और वृक्षमें भी कोई अतर नहीं है।" हो परन्तु धर्म और उसके तत्वको तो नांछित नहीं किया इस प्रकार हम देखते हैं कि भ. महावीर स्वामीने जो जा सकता! हर हालतमें, जो कुछ विद्वान् होते हैं और उपदंश, अपनी स्वतंत्रसाधनाके उपरान्त स्वानुभवके धर्मके मर्मको समझते हैं, कभी भी किसीके प्रभाव मे नहीं माधारपर दिया था, वह स्वतंत्रता और स्वावलम्बनके मार्ग पा सकते, जैसा कि आज भी हम देख रहे हैं कि जो पर प्रारूढ होने वाले व्यक्ति के लिये प्रकाश स्वरूप था। वास्तविकत: जैन है वे उन वादोंके शिकार नहीं हैं। उनके दिव्य उपदेश में साम्य-माव, भ्रातृभावकी ध्वनि थी।
जैनधर्मके प्रचारकोंमें अंतिम तीथ कर-तीर्थका प्रवर्तन उन्होंने जो कुछ कहा था, अपने अनुभव और साधनाके करनेवाले-भगवान् महावीर स्वामी श्राजसं कोई २४४३ उपरान्त ही कहा और उसी समय लोगोंने देख लिया कि वर्ष पूर्व होगये हैं। उन्होंने अपने ज्ञानबलसे प्रत्यक्ष जिस बातका उपदेश हम महावीर-मुखस श्रवण कर रहे देखते हुए जो कुछ प्रतिपादन किया था, वह वैदिक संस्कृति हैं, वह उनके जीवन के अणु-अणुमे व्याप्त है--भ.महावीर के प्रतिकूल था।श्वरवाद, भाग्यवाद और वशपरम्परा उनके प्रागे भादर्श रूपम उपस्थित थे!