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किरण :-१०]
क्या रत्नकरएहश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है?
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अब हम उन ६ दोषोंके सम्बन्ध में भी विचार कर लेना हुभा। जब वे इतने सीधे पद्यका अपने पक्षको पुष्ट करनेके चाहते है जिनके विषय में ही अब प्रो.सा.का प्रश्न रह गया लिये इच्छानुकूल भावार्थ करते हैं तो उन पद्योंका अर्थ या है। जैसाकि आप स्वयं लिखते हैं-"अब प्रश्न रह भावार्थ इच्छानुकूल निकालने में भी उन्हें शायद संकोच जात है केवल सुधा पिपासा, जरा, प्रातक (पाधि, नहीं हो सकता जो कि गूढ, गम्भीर और सूत्रात्मक हैं। जन्म और अन्तक (मृत्यु) का। ये दोष उन शेष कर्मों द्वारा उक्त पद्यका अर्थ और भावार्थ क्या है? प्रो. साने जो उत्पन्न होते हैं जिनका केवलमें सत्व और उदय दोनों भावार्थ निकाला है वही उसका भावार्थ? अथवा मैंने वर्तमान रहते हैं, अतएव इनका उनमे प्रभाव मानने में एक जो प्रमाणित किया है कि यहां (इस पद्यम) अन्तक-मरण सैद्धान्तिक कठिनाई उपस्थित होती है।"
और उसके साथी जन्म और ज्वर (रोग) इन तीन दोषों प्रो. सा.के इस कथनपरसे और खासतौरसे उनके का प्रभाव बतलाया गया है। यह ठीक है। इसका निर्णय द्वारा प्रयुक्त हुए 'केवल' शब्दके योगसे इतना तो स्पष्ट मर्मज्ञ विद्वान् स्वयं कर सकते हैं । मै यहां इतना और होजाता है कि रत्नकरण्डमे कहे गये उन १८ दोषोंमेंसे बतला देना चाहता है कि मेरे उक्त कथनकी पुष्टि स्वयं प्राप्तमें राग-द्वेषादि १२ दोषोंका अभाव स्वीकार करने में स्वामीसमन्तभद्रके इसी स्वयम्भूस्तोत्रगत निम्न दूसरे श्रापको कोई आपत्ति नहीं रही । केवल क्षुधा, पिपासा उल्लेखोंसे और अच्छी तरह होजाती है:श्रादि उपर्यत ६ दोषोंका उनमे अभाव माननेमें ही उन्हे १-'तस्माद भवन्तमजमप्रतिमयमार्याः' (८५) कुछ सैद्धान्तिक कठिनाई नज़र श्रारही है । अत: मैं २-'त्वमुत्तमज्योतिग्जः क निवृतः (४०) इन ६ दोषोंके अभावपर मा विशेष विचार प्रस्तुत करता हूं। ३-'त्वया धीमन ब्रह्माणधिमनमा जन्मनिगलं।
मैंने केवलीमें जन्म, अातङ्क (व्याधि) और मरण इन समूलं निभिन्न वर्माम विदुपां मोक्ष पदवी ॥ ११७ तीन दोषोंका प्रभाव प्रमाणित करने के लिये स्वयम्भूस्तोत्र ४- 'शाल जलधिग्भवो विभवस्त्वमरिष्टनेमिजिन - का निम्न पद्य उपस्थित किया था -
कुञ्जगेऽजरः।' (१.३) अन्तकः क्रन्दको नृणां जन्म-ज्वर-मखा सदा । इन ठल्लेखोमेंसे पहले तीन उल्लेखों मे केवलीके स्वामन्तकान्तकं प्राप्य व्यावृत्तः कामकारतः ॥६३|| अन्मका प्रभाव और चौथे उल्लेखम 'जरा' का प्रभाव
इस पद्यमें कहा गया है कि 'हे जिन ! जन्म और ज्वर स्टतया बतलाया गया है। 'अन्तकान्तक' पदके द्वारा मग्णा जिसके मित्र हैं और जो मनुष्योंको सदा रुलाने वाला है का प्रभाव प्रतिपादित हो ही जाता है। इन उल्लेखोंके ही वा अन्तक-मरण अन्तकका अन्त-नाश करनेवाले श्रापको प्रकाशमें मेरे उन दो उल्लेखों-जन्म-जरा-जिहासया (पाप्त होकरके अपने कामकार-यथेच्छ व्यापार (प्रवृत्ति) से (४६) और 'ज्वर-जरा-मरणोपशान्त्ये' (८१)को भी देखना व्यावृत्त हो गया अर्थात अन्तक श्रापको अन्तकान्तक जान चाहिए जिनके बारे में मैंने यह स्पष्ट करते हुए कहा था कि कर जन्म और जर मित्रों सहित अलग होगया।' "इनमें जम्म, ज्वर और मरण तो पहले आगये । 'जरा' का
स्पष्टत: इस पद्यपरसे मर्मज्ञ विद्वान् केवलीमें मरण, भी प्रभाव बतलाया गया है। यहा 'जिहामा' और 'उपजन्म और ज्वर (रोग) इन तान दोषोंका अभाव-प्रतिपादन शान्ति' शब्दोंसे केवली अवस्था पानेपर प्रभाव ही विवक्षित प्रमाणित कर सकते हैं। परन्तु प्रो. साने हल पद्यका जो है।" जब मैंने 'जन्म-जरा-जिहासया' इस ४६वें पके भावार्थ प्रस्तुत किया है वह इस प्रकार है-"जन्म, ज्वर और भागेका 'स्वमुत्तमज्योतिरजः क निवृतः' यह ५०वां पद्य मृत्यु जिस प्रकार साधारण लोगोंको व्याकुल करते और देखा तो वह मेरी वह विवक्षा मिल गई जहां स्पष्टत: रुलाते हैं उस प्रकार वे आपको नहीं रुला पाते | पाते तो वे केवली अवस्था प्राप्त करने (स्वमुत्तमज्योतिः) के साथ ही आपके पास भी हैं, पर वे अपनी मनमानी करने में अर्थात् 'प्रजः' पदका प्रयोग करके ग्रन्थकारने उनके जन्मका प्रभावराग द्वेष भाव उत्पन्न करने में सफल नहीं होते।"
प्रो० सा०के इस भावार्थको पढ़कर मुझे बड़ा पाश्चर्य यहां एक बड़े महत्वकी बात यह है कि प्रो. सा. के