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अनेकान्त
[ वर्ष
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दुखित-सा मन क्यों तुम्हारा दीखता, श्याम मुख है, है नहीं आलोक क्यों ?
सैन्य-नायक सँभलकर कहने लगे'कुछ नहीं, माता न चिता तुम करो। देव-दर्शनका महत् सौभाग्य ले,
मानवी-तनको महत्तामे भरो ।' और रथ ननने बनाया वेगसे, दौड़ने घोड़े लगे रथको लिए । नहीं सीना पूछ कुछ आगे सकी, चुप रही वह, विन्न अपना मन किए ।
अपशकुन हैं आज यह क्यों हो रहे, क्यों अशुभसा आज दिखलाता मुझे! फड़कती है आँख यह दुख-दायिनी,
दीखता है कष्ट कुछ आता मुझे। रामरानी सोचती यह जा रही और रथ है उड़ रहा गति वायुकी। सोचते हम विश्व-वासी हैं यथा, उधर घटती आयु पल-पल आयुकी ।।
घूलके गुब्बार पीछे उड़ रहे, वेगसे है यान आगे बढ़ रहा। छूटते सब जा रहे वन-ग्राम हैं,
सारथी है जा रहा मनमे दहा ॥ सोचती फिर अवधि-पतिकी कामनी, देव-दशेनसे सभी होगा भला। व्यर्थ चिंता इस लिए मै क्यों करूँ ? मानना है जबकि विधिका फैसला ।।
बाघ थे ऊँची दहाड़ें मारते। इधर भालू भेड़िए थे घूमते,
सर्प अजगर थे उबर फंकारते ।। हिमकों के रूप फिरती मृत्यु थी, काँप उठता देख कर बलवान भी। रोक करके यान मैनानी वहाँ, नगे रोने थे न जो गेए कभी ।।
चकित हो सीता लगी तब पूछने. रो रहे हो क्यों, कहो ए वीरवर । किस लिए हो रुक गए बोलो जरा.
यहाँ ठहरो मत, चलो अपने नगर ।। यह जगह इतनी अशोभन है, जहाँएक क्षणको भी ठहरना काल है। शीघ्र ही आगे बढ़ाओ यानको, हो रहा मेरा यहाँ बहाल है।
चमूपति रोते हुए कहने लगे, रुद्ध-स्वर में कपट-मय अपनी व्यथ।
माँ ! क्षमा मुझको करो मै दाम हूँ.
___ दीन है, असमर्थ हूँ, मै मवथा ।। दीन ही रोते सदा ॥ यहाँ, रो रहा है आज मैं भी दीन हो। दीनका अस्तित्व क्या संसार में ? हे वही जीवन कि जो स्वाधीन हो ।
मैं गुलामीमें बँधा हूँ, भृत्य हूँ, सबल होकर भीन कुछ कर पा रहा। देखना वह दृश्य मुझको पड़ रहा.
दे रहा जो कष्ट प्राणों को महा।। चुप रही अवधेश्वरी बोली नहीं, सोचती मनमे यही अपने रही। है अमंगलकी घटा सिर पर खड़ी, सोचती थी सामने है अब वही।।
कहा-'रोओ मत, कहो जो बात हो, सिर्फ रोनेसे चला है काम कब ? भाग्य-निर्णय टल नहीं सकता कभी,
भोगना ही वह पड़ेगा पुत्र ! सब ।। चमूपति कहने लगे श्राकान्त हो
सभी तीर्थोंकी कराकर वन्दना, रथ घुमाया फिर चमूपत्तिने कहाँ ? उस भयंकर घोर अटवीमें सखे !
मृत्युका साम्राज्य पूरा था जहां।। बाघ, चीते, सिंह, भाल, भेड़िए, सर्प, बिच्छू आदिसे वह थी भरी। वृक्ष थे इतने सघन उसमें खड़े, दिवसमें भी थी प्रविष्ट विभावरी ।।
सब तरफ चिंघाड़ता गज-मुंड था,