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गुलामी [करुणा-मय, पौराषिक, खण्डकाव्य.]
(ले० स्व. 'भगवत्' जैव )
- - सैन्य-संचालक अयोध्यानाथ का,
कभी आजादी गुलामीका रहा, जब चला दर्बारको रथपर चढा ।
किसी भी युगमें नहीं कम फासला। चकित पुरवासी हुए निज चित्तमें,
निर्बलोंकी बात जान दीजिए, था मभीमें एक कौतूहल बढ़ा।
शक्तिशाली भी अगर परतंत्र है। आज किम नृपका अनिष्ट समीप है,
देह उसकी क्या, नहीं है ध्येय भी, पत्तन किस साम्राज्यका अनिवार्य है ?
दूसरेके हाथ ही का यंत्र है। जो बुलाहट है हुई दर्बारसे,
है प्रकट यह आज कोई कार्य है ।। चमूपतिने ग्थ लगाया द्वारपर, पहुँच मेनापति गए अविलम्ब ही,
जानकीसे वचन यों कहने लगे। थी मभा बैठी जहाँ श्रीरामकी ।
'उठो, जननी तीर्थ-दर्शनके लिए, नम्रताके साथ अभिवादन किया,
भाग्यकी जिससे प्रबल रेखा जगे।। चात आई सामने फिर कामकी ।।
दे दिया आदेश है रघुनाथने, सौम्य प्राकृति वक्र थी अवधेशकी,
देर करना अब तुम्हारा व्यर्थ है । था झलकता क्लेश चहरेपर धना !
चाव था जिन-वन्दनाका जो तुम्हेंकिन्तु दृढ़ता भी प्रकट थी दीवती,
यान भेजा नाथने इस भर्थ है। वेदनाके साथ थी संवेदना ॥ धिक् ! गुलामी, क्या कहें तेरे लिए? गम बोले-'बन्धु, सीताको अभी,
प्रकट है यह शक्तिशाली तू बही। छोड़ आओ तुम विपिनके अंकमें।
धन्य है वह वीर जो तुझसे बचा, जगह अब उमको नहीं प्रामादमें,
विजयकी माला गले जिसके पड़ी। दंड है यह, डालना आतंकमें ।
दासका जीवन न कोई वस्तु है, मौन र, हेसेनापतिनिस्तब्ध ही,
जो इशारोंपर हमेशा नाचता ! श्रवण कर इस वनसे आदेशको॥
झूठ-सच करना सभी पड़ता उसे, व्यथासे मन भर गया उनका तभी,
खो चुका जो गांठसे स्वाधीनता ।। सहन पर करना पड़ा संक्लेशको॥ अवधकी गनी उठी श्रद्धा भरी, चाकरी थी, बोल क्या वह बोलते ?
'चलो' कहकर बैठ वे रथमें गई। था गुलामीसे बँधा उनका गला।
चमूपतिका कंठ तब अवरुद्ध था,
चूँद दो अब लोचनोंमें भागई ।। * यह वह दूसरा खण्ड काव्य है, जिसे भगवतजी अनेकान्त
देख सीताने कहा-क्या बात है? के लिये अपने पीछे छोड़ गये हैं।
हर्ष-बेलामें प्रकट यह शोक क्यों ?