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किरण ६-१०]
गुलामी
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'दास है क्या वस्तु स्वामीके लिए। पूछती हो, रो रहा हूँ किस लिए ? रो रहा हूँ मैं गुलामी के लिए।
आज यदि स्वाधीन होता तो अहो, पाप यह होता न मेरे हाथर्स । नारकीपनका घृणित मिलता नही,
मम-बेधी हुक्म ये रघुनाथस ।। माँ ! मुझे आदेश है, अवधेशका, प्रकट करते काँपती मेरी गिरा। क्या करूँ ? कुछ समझमें आता नहीं, आज ऐसी उलझनोंमें हूँ घिरा ॥
दुखित वैदेही लगी तब पूछने, कॉपता स्वर और थे आँसू बहे। क्या कहा है ? नाथने उसको कहो,
क्लेश क्यों तुम व्यर्थ ही हो पारहे ? तब विवश होकर यही कहना पड़ा, माँ! तुम्हारा त्याग है प्रभुने किया। घोर बनमें छोड़ आनेके लिए, है मुझे आदेश राघवने दिया ।।
उठी रथसे जनकनृपकी नंदिनी, प्राणपतिके वचन पड़ते कान में । कष्ट सहसा वह उसे अनुभव हुआ,
था न जो अनुमानके भी ज्ञानमे ॥ उतर कर रथसे चली सीता जभी, सैन्यपतिका हृदय सा फटने लगा। ठीक बच्चोंकी तरह वह रो पड़े, विपिन कोलाहल रुदन ध्वनिसे जगा।।
भयाकुल-सीता धरा पर जा पड़ी, आसुओंसे वस्त्र भीगे थे सभी। भूमि पर बैठी लगी अवधेश्वरी,
वीरसेनापति दुखित बोले तभी। हाय ! यह क्या देखता हूँ आज मै, फूट जाती ऑख क्यों मेरी नहीं ? मूर्खता थी जो अयोध्यामें रहा, भाग जाता मैं विदेशोंको कहीं।
कृत्य यह होता न मेरे हाथसे,
हूँ दयासे शून्य बेशक नारकी। अधम मुझ-सा कौन है संसारमें ?
कौन मुझसे अधिक होगा पातकी ? कुसुम-मा तन, कहाँ बनकी भीमता, दीखती है प्रकट अकुशल प्राणकी । कहाँ यह निर्जन विपिनकी भूमि है, कहाँ महलोंकी निवासिन जानकी ।
मात्र स्वामीके इशरे पर खड़ा, ले रहा हूँ मोल यह घातक-व्यथा । कर रहा हूँ वह अनर्थ महान मै,
हृदयके प्रतिकूल है जो सवथा ॥ आत्मा-तक हाय बिक जाती जहाँ, विश्वके सारे वहाँ दुख क्लेश हैं। स्वाभिमानी मन वही पर नष्ट है, जहॉस यह दामता प्रारम्भ है।
वह मृतकके तुल्य है, परतंत्र जो, यदि कहें जीवित उसे तो दम्भ है। माँ ! क्षमाकी भीख दे करदो विदा,
बाट होंगे देखते रघुकुल-तिलक ।। कुछ संदेशा भेजना हो तो कहो, मै उसे पहुंचा सकूँगा नाथ तक । रो पड़ी मिथ शकी तब लाडली, उच्च-स्वर था, घोर करुणासे भरा।।
गूंज तब कान्तारकी सीमा गई, काँपने-सी लग गई जैसे धरा। रो उठा वह भीम बन भी दोन हो,
पत्थरोंका भी हृदय फटने लगा ।। वृक्ष भी चीत्कार-सा करने लगे, रुक गई बहती हुई भी विपथगा। वाघ, भालू, सर्प, हस्ती, भेडिए, सब चकित हो लगे उसको देखने ।।
सौम्यता उन पर झलकने थी लगी, हों सभी जैसे कि मिट्रीके बने। मर्म-वेधी रुदन रघुपति-नारिका,
गगनको छूने लगा निर्मुक्त हो । सभी नभचर विकल हो आकाशसे,