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अनेकान्त
वर्ष ७
पास आए शोकम संयक्त हो।
लोचनों में नीर आनेको हुआ, बहुन रोका था रुदन दृढ़ चित्त हो,
कण्ठकी दयनीय दिखलाई दशा ।। श्रमह हो वह किन्तु सन्मुख प्रागया ।।
दूरसे ही पूछने वह यह लगे, पूछते ही चमूपतिके गे पड़ी,
'छोड बाए हो कहो सीता कहाँ ? टूट जैसे बॉध हो जलका गया।
कुछ कहे हैं शब्द क्या मेरे लिए, देर तक सीता इधर रोती रही,
ठहरनेकी क्या व्यवस्था है वहाँ ? उधर सेनापति बहाते नीर थे।।। मौन सेनापति रहे कुछ देर तो, किमीको भी तो नहीं अवकाश था,
फिर सुना सन्देश सब उनने दिया। दुखित दोनों ही समान अधीर थे।
राम ऑमू पोंछते सनते रहे, कठिनतासे कह सकी सीता यही,
पाठ इमस क्या कहें कितना लिया ? 'पुत्र ! कहना-प्रभो! यह अरदाम है।।
अवध ति जब शोकमें मंत्रस्त थे, लोकका अपवाद सुन करके मुझे,
चमूपति कहने लगे अपनी कथा । दे दिया जो आपने वनवाम है।
हे प्रभो ! मुझको विदाकी भीख दो, आज कुछ खोटी प्रकृतिके आदमी,
खल रहा जग जाल मुझको सवथा ।। धर्मका अपवाद करते हैं विभो !
कर चुका मै कार्य अंतिम आपका, श्रवण कर म धमके अपवादको,
अब मुझे स्वातंत्र्यका सुख चा हए । छोड़ मत तुम धमेको देना प्रभो !
है मुझं करना प्रयत्न अवश्य ही, त्याग मेग कष्टदायी कुछ नही,
इस दुखद घातक गुलामीके लिए । क्यों कि मैं हैं आपकी पद-सविका ।
किन्तु तजना धर्मका दुष्कृत्य है, कट-दायक नर्क और निगोदका ।। दासताकी शृंखलाको तोड़ कर, बस यही सन्देश कहना जा वहाँ, चमूपति दोड़े तपोवनके लिए।
नाथ ! सीताने कहा है आपको। तनिकमे मन्तुष्ट वह होते न थे, यश निरन्तर आपका बढ़ता रहे,
पुणे आज़ादी उन्हें थी चाहिए। धर्म पल-भरको न विस्मृत कर सको।
गम बोले-बन्धु मुझकोछड़ कर, वीर सैनानी दुखित रोता हुआ,
कहाँ जाते हो बताओ तो जरा ? पैर छू कर पुनः रथमें जा चढ़ा।
चमूपति बोले नहीं, आगे बढ़े, रह गई सीता अकेली ही वहाँ,
उसी पथपर जो कि था श्राशा भरा।। यान खाली अवधके पथपर बढ़ा ।। जहाँ राघवको विकलना थी मिली, * * * *
प्राण प्यारीके विपिन परित्यागसे। चमूपतिको देख कर आता हुआ,
वहाँ पाया वांछनीय प्रकाश था, रामका होने लगा मन-व्यग्रमा ।
चम्पतिने उस विरहकी आगमे ।।