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सुख और दुख
(लेखक श्री जमनालाल जैन, विशारद )
कविवर भूधरामजीका यह कहना" जो संसार विषै सुख होता तीर्थकर क्यो प्यागे काहे को शिवमान करते संयम को अनुरागे" एकाएक हृदयमें उथल-पुथल, आश्चर्य एवं आशका उत्पन्न कर देता है कि क्या वास्तव में हम संसार सुख ही नहीं, दुख ही दुख है ! उस हे समय और भी अधिक कौतूहलका अनुभव होता है, जिम समय वे अपनी पंकि तीर्थकरोका भी समावेश कर देते मे है। तीयंकर जैन धर्मानुसार ऐसे वैसे सामान्य मनुष्य नहीं होते, वे जन्म ही किमीको अपना सिर भी नहीं झुकातेउनकी योग्यता, महानता और आदर्शके प्रतिकूल जो ठहरती है यह बात जब इसने बडे श्वशन् महिमाबाद और ऐश्वर्यवान् और तो और इन्द्रों द्वारा पूजनीय तीर्थंकरों की ही, यह दशा इस समारं तब फिर हम सामन्य प्राणियोंकी है, हालतका तो पूछना ही क्या है !
जो ईश्वर, परलोक, धर्म कर्म आदि कुछ भी नहीं मानते, जिनकी संज्ञा इसके विपरीत धारणा वालोने 'नास्तिक" रस छोड़ी है, उनका कहना है कि जो कुछ है, यहीं पर है-मुख भी और दुख भी परन्तु जब हम दुग्ब । देखते हैं तथा प्रत्येक प्रायकि हृदयस्थ विचारोकी थाह लेते जेते तब यही ज्ञात होता है और जिसे प्रत्येक प्राची समझता है कि ममार भटकनेवाला तुच्छ गुच्छ जीव भी सुखकी महत्वाकांक्षाओं को लिये चारों धोर सुखशांति की खोजमे फिरता रहता है। कोई भी प्राणी मात्रके लिये तो अपने प्रिय निरीह प्रायको दुखकी थकती हुई आवा मे सहर्ष समर्पित करना नहीं चाहता। वह अपना वर्तनान दशापर, फिर वह चाहे जैसी ही दूसरों की दृष्टि क्यों न हो, कभी भी संतुष्ट नहीं रहता- निरन्तर यही सोचना रहता और भावी सुखकी आशा और अभिलाषाओंकी कल्पना कर, उनकी पूर्तिकी चिन्तामे मतत व्याकुल रह सदैव अपने अन्तरको दग्ध करता रहता है कि इससे पक एवं अमिट सुख-शांति किस प्रकार प्राप्त हो । दूसरे
हम निरन्तर प्रत्यक्ष अनुभव करते ही रहते हैं कि जिस प्रकार एक धनसम्पन्न व्यक्ति भो अपनी दयनीय दशापर चाकुल व्याकुल और चिंतित रहता है, उसी प्रकार एक निर्धन भी अपनी अयमर्थता निम्मायता और मनताको कोयना रहता और उस धनिक वैभव और ऐश्वर्यको गिरकर ईर्षाले महमान होता रहता है। एक ओर कोई नित न होने दुखी रहता है. कोई कुसतान होनेसे चितित रहता है तो कोई होर मर जाने दुखी रहता है। एक महाशय अपनेको, अविवाहित जीवन व्यर्तन करनेके कारण जनभाग्य और दुर्भाग्यशाली समझते हैं वहीं दूरी को उन्हींके पीयमे देखनेको मिलता है कि पति पनी आपस मे 'जूती- पत्रम्" कर रहे हैं। इसी लिए एक कविने जगतकी विचित्रताका निरीक्षण करके कहा हैसूक्ष्म दाम बिना निधन दुखी, तृष्णावश धनवान् । कहूँ न सुख संसारमे, सब जग देख्यो ज्ञान ॥ - पार्श्वपुराण, भूधरदाम
ओर
तब यह कहना कि मुख और दुख दोनों भी यहीं हैं और सब कुछ हमी जीवन के लिए है माया कहरो नास्तिव तक उचित और उपयुक्त स्वीकार किया जा सकता है. जब कि लोग पाप, हिंसा, अत्याचार और पाखण्डम भयभीत डोकर कुछ पुरुष कार्य कर अपने भावी जीवनकी कल्याण कामना करते हुए पाए जाते हैं। I
मान भी लें कि यह उनकी मूर्खता है अज्ञानता है और हैं धास्तिकता के नामपर ढोंग, तब भी प्रश्न इन नास्तिक मिरपर भूत बनकर मदार ही रहता है कि महाशयजी, यदि यही जीवन सब कुछ ह ता - इसके आगे कुछ भी न होता तो संसारमें विधि विधानों नियमोरनियम राजकीय नियमों, धार्मिक अनुष्ठानों और सामा जिक प्रथाओंकी आवश्यकता ही क्यों होती ? लोग मनमाने कार्य करते, हमारी बहन-बेटियोंपर सुखे रूपसे निर्भ यथाके साथ बखाकार करते और एक तूपरेको र पहुंचा