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अनेकान्त
[वर्ष ७
कर अपने स्वार्थ-सापनमें लिप्त रह खाते-पीते और मौज मुनकर ही लोगोंके भागे अनिष्ट पाशंकाका चला चित्र डहाते ! कस्य तो यह है कि ऐसा यदि होता तो यह ससार, उपस्थित हो जाता है और जिनके वशीभूत होकर वे कार्य संसार न रहकर नरक रह जाता, जहां बेचारी संस्कृति, करते हैं, एक तो उनपर कुढ़ते रहते हैं और दूसरे जी जगा सभ्यता धर्म तथा जीवनकी गंध भी नहीं माने पाती और कर कार्य भी नहीं करते। अत. यह निर्विवादरूपेण सिद्ध असम्भव नहीं जो यहां शून्य रहता । और, यदि लोग हो जाता है कि प्रत्येक प्राणी, फिर वह छोटा हो या बसा. अपने कल्याण के लिए, शुभ कार्योंके करने में तत्पर दिख ई सुखका ही अभिलाषी हैपढ़ते हैं तो क्या उनकी कल्याण कामना, उनकी मृत्युके जे त्रिभुवनमें जीव अनंत । सुख चाहे दुख हैं भयवंत ॥ उपरांत मृतिकाके ढेरके लिए है? कह नही सकते, इन इतना कह चुकनेक उपरांत भी, विचार करने के लिएप्रश्नोंका उत्तर, हमारे नास्तिकता दम भरने वाले दंभी और विवेचना करनेके लिए-हमारे सम्मुख कतिपय प्रश्न रह अहंकारी सजन, किन शब्दोंमें दंगे ! परन्तु इतना तो ही जाते है कि सुख प्रास्विर है क्या ? वह है तो भी कहाँ ? निर्विवाद सुस्पष्ट है कि उस सिद्धान्तके अनुयायियोमेमे और वह प्राप्त कैसे किया जा सकता है । अत: सक्षिप्त एक भी सजन एसा न होगा जो अपनेको, अपनी स्थितिमें रूपेण इनपर भी विचार कर लेना अनुचित न होगा। हो, अथवा, उसे उसकी मांगके अनुसार समस्त सुखमाधन सुख-सुख तो सारा संसार चिल्लाता है-दार्शनिकोंने प्रदान कर दिए जाएँ, तो भी, वास्तविक या स्थायी सुखका भी चिल्लाया, विचारकोंने भी और धार्मिकोंने भी । परन्तु पूर्ण अधिकारी सिद्ध कर सकेगा।
हम देखते हैं कि आज भी ये दो अक्षर मनुष्योंके लिए हो सकता है, वे यह दलीज उपस्थित करके अपने को विकट समस्या बने हुए हैं। एक निर्धन कहता है कि यदि विजयी घोषित करना चाहें कि प्राणी कंवल कार्य करने मेरे पास इतना धन होता तो मैं यों करता, त्यों करता और लिए ही उत्पन्न हुआ है। वह इसकी परवाह या अभिलाषा न जाने क्या करता तथा सुखी रहता। परन्तु उसीके पीछे इमलिए नहीं कर सकता अथवा उसे अधिकार ही नहीं एक धनिक चिल्ला रहा है "हाय ! हाय" न उसे खानेकी है कि वह सोचे कि मैं सुखी होऊँ या चैनकी बंशी बजाऊँ! सुध है न पीने की, न सो पाता है न जाग ही सकता हैलेकिन वास्तवमे यह दलील सवा सोबह पाने लघर है। यह उससे भी अधिक चिन्तित और प्राकुल-व्याकुज ऐसा कौन है जो भव्य प्रामादोंमें नरम नरम कोमल गलीचो दिखाई देता है। यह दुविधा सुखान्वेर्ष के लिए एक विचिपर गहियोंपर बैठे बैठे अपने भृत्योंपर हुकुम चलाने के स्थान प्रता उपस्थित कर देती है कि अंतमें सुख कहा किस जाय पर ज्येष्ठकी भरदोपहरीम हाथमें कुल्हाड़ी लेकर जगल और उसका उपयुक्त उपभोक्ता कौन हो सकता है? ज्यो २ मे इंधन काटनेको जाने के लिए उद्यत हो! यह बिलकुज वह अ.गे कदम बढ़ाता है दुख दावानलकी प्रचण्डता ही असम्भव है। यदि प्राणी परिश्रम करना ही उपयुक्त उसे दृष्टगत होती है। ज्यों २ वह इस समस्याको सुलझाने समझता होता तो क्यों यह देखने में आता है कि कई के लिये प्रवृत्त होने जाता है, क्यों २ उसका जाल नझते व्यक्ति कार्योंमे, जिन्हें वे मूल्य या पारिश्रमिक लेकर भी ही जाता है परन्तु सुखका खोजी यथार्थ में यदि कोई करते हैं, जो चुराते हुए पाए जाते हैं। और, यदि परिश्रम है और कुछ सदसद् विवेक बुद्धि रखता है तो उसे, , करनेमे मनुष्यको आनन्द प्राता अथवा वह यदि उसकी ससारसे दूर हट कर. विचार करनेके पश्चात् इसी निष्कर्ष स्वाभाविक प्रवृत्ति होती तो क्यों प्राज पालसियों, अकर्मण्यों पर पहुंचना होगा कि "संसारमें जितनी भी दृश्यमान और ऐयाशियों के विरुद्ध पोथेके पांथे दृष्टिगोचर होते हैं एवं वस्तुएँ हैं, सब ही दुखका कारण हैं, क्यों कि, जैसा वह क्यों परिश्रमकी प्रशंसापर प्रशंसा सुनने में आती है ? जो देख चुका होता है, जो वस्तु एकके लिए हितावह अथवा कार्य, स्वभावत: प्रत्येक मानवके हृदयसे निरन्तर होते ही सुखकर है, जिसे स्थायी नहीं कह सकते, वही दूसरेके लिए रहता है उसके विषय में न तो कहीं प्रशंशाहा सुनी गई उसी समय हानिकारक एवं दुखाद भी है। इस लिए यह और न निंदा ही करते किसीको देखा है। परिश्रमका नाम दुरंगी वस्तुएं, जिनके समूहका नाम ही यह दृश्यमान् संसार