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अनेकान्त
[वर्ष ६
नव तद्वचनेनैषां प्रतिपत्तिः सुनिश्चिता।
अर्थान--यह अवमूल और प्रधः शाखा वाला संसार अमृष्टावध्यमो ब्रूयादात्मेश्वर्य प्रकाशनात् ।।६०॥ रूपी वृक्षको अव्यय (सनातन) नित्य कहा है। क्योंकि न
वेदका प्रमाण इस विषय में नहीं माना जा सकता। तो इसके प्रारम्भका ज्ञान होता है और न इसके अम्तका क्योंकि वेदश्वरप्रणीत हैं संभव है विना बनाये ही ईश्वरने अनुमान किया जा सकता है। प्रत इसका जो स्वरूप दीख अपनी प्रशंसाके लिये वे वाक्य लिख दिये हों जिनमें विश्व रहा है यदि ज्ञानचक्षसे देखा जाये तो वह मिथ्या सिद्ध बमानेका कथन है। यदि कहो कि वेद नित्य हैं तो- होता है। अत: इसको प्रादि-अन्त-रहित नित्य ही कहना
यदि प्रागप्यसो तस्मादर्थासीन तेनसः। चाहिये। सम्बन्ध इति तस्यान्यस्तदर्थोन्यप्ररोचना ।। ६२ ।।
महाभारत पया सृष्टिसे पूर्व भी वेद विद्यमान थे ? यदि ऐसा है
महाभारतमें महर्षिन्यासजीने इसी विषयको विस्तार तो वेदों में कहे हुए पृथ्वी प्रादि पदार्थोंके साथ वेदोंका
पूर्वक लिखा है तथा च सुन्दर शब्दों में इसकी नित्यताका सम्बन्ध था या नहीं। यदि था तो उन कार्यरूप पृथ्वी
वर्णन किया है। माविका होना उस समय सिद्ध होगया जब वेद थे। अत:
सदापर्णः सदापुरः शुभाशुभफदोदयः । वेदोंकी तरह सम्पूर्ण जगत भी नित्य सिद्ध हो गया। यदि
आजीव्यमर्वभूतानां ब्रह्मवृक्षः सनातनः ॥ कहो कि सम्बन्ध नहीं था तो नित्यवेदोंके साथ नवीन
-महाभारत अश्वमेधपर्व अ०३५-३७-१४ पदार्थका सम्बन्ध किस प्रकार हो सकता है। अर्थात नित्य
महाभारतकारने इस जगतरूपी वृक्षको सदा पुष्प और वेदों में भनित्य पदार्थोंका वर्णन कैसे हो सकता है। अत:
सदापर्ण एवं सनातन प्रादि शब्दों द्वारा अलकृत करके जिन मन्त्रों में सृष्टिरपनाका कथन है वह अर्थवाद है।
सम्पूर्ण विवादोंका फैसला कर दिया । क्योंकि उन्होने अर्थात वह कवियों की अपने देवताकी प्रशंसा मात्र है।
स्पष्ट कह दिया कि इस वृक्षके हन चान्द तारे आदि फूल वास्तव में वैदिकसाहित्य में जगतरचनाका खण्डन किया
फलोंसे हमेशा प्रफुलित रहता है। यह सनातन है न कभी गया है। उन श्रतियों का समन्वय भी तभी हो सकता है
बना और न कभी बिगड़ेगा। यही वैदिक मान्यता है यही जब हम उन श्रुतियोंको स्तुतिमात्र माने जिनमें सृष्टिरचना
भारतीय दर्शनका सर्वतन्त्र सिद्धान्त है। का कथन है।
जिन अति भादिमें जगत् रचनाका आभास प्रतीत उपनिषद और जगत
होता है वे सब अर्थवाद स्तुतिपरक मात्र हैं। वैदिक साहित्यमें उपनिषदोंका स्थान वेदोंके समान ही है। उसमें लिखा है कि--
बौद्धदर्शन ऊर्ध्वमूलोऽवाक शाख एषोश्वत्थः सनातनः। बौद्धदर्शन भी विश्वकी निस्यताका समर्थन प्रबल
कठोपनिषद ३-२-१ युक्तियों द्वारा करता है। बौददर्शनके महाविद्वान श्रीशान्तियहां संसार रूपी वृक्षको स्पष्ट शब्दों में सनातन कहा रक्षितजीने अपने तस्वसंग्रह नामक प्रथमें सृष्टि कर्ताका
खण्डन उन अकाट्य युक्तियोंसे किया है कि जिनका उत्सर गीता
असंभव है। आप लिखते हैं कि प्रत्येक अनुमानकी सिद्धि सनातनधर्मका सर्वमान्य ग्रंथ श्रीमद्भगवत गीतामें के लिये अन्वय और म्यतिरेककी आवश्यक्ता है। जैसे जहां भी संसारको इनकी उपमा दी है।
जहां अग्नि है वहां वहां धुवां है रसोईघरकी तरह। यह तो ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वस्थं प्राहुरव्ययम् । हुमा अन्वय, और जहाँ जहां अग्नि नहीं है वहीं वहाँ धुवाँ
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भी नहीं हैं जैसे तालाबादिमें, यह हुमा व्यतिरेक । इन न रूपमस्येह तथोपलभ्यते ।
दानोंसे यह सिद्ध हुआ कि पिके कारणसे धुर्क होता है। नान्तोन चादिन च संप्रतिष्ठा ।। ३ ।। परन्तु श्राप लोग ईश्वरको सर्वव्यापक मानते हो प्रतः