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किरण ७८]
जगम चिना
अभावाचानुकम्प्यानां नानुकम्पास्य जायते। अशरीली होनेसे मुक्तामाकी तरह सुखी थीं । त: उन सृजेच शुभमेवेकमनुकम्प प्रयोजितः ॥५॥ पर दया करनेका विचार ही उत्पन्न नहीं होता । यदि अथाशुभाविनासृष्टिः स्थितिनोपपद्यते। भविष्यके दुखका रोना हो तो ईश्वरको चाहिये था इस श्रात्माधीनाभ्युगये हि भवेत किं नाम दुप्करम ।।५३ संसारको मानन्दमय बनाता अथवान बमाता । संसार नथा चापेक्षमाणस्य स्वातन्त्र्य प्रनिहन्यते । दुखमय बनाकर उसने जीवापर क्या दया की? यदि भाप जगञ्चामृजनस्तस्य कि नामष्टं न चिति ॥५४॥ यह कहें कि सुख और दुख सापेक्ष हैं अत: दुबके बिना प्रयोजनम्नुद्दिश्य न मन्दोपि प्रवर्तते। सुस्वका अनुभव ही नहीं हो सकता । यह भी गलत है। एवमेव प्रवृत्तिश्चैतन्यनास्य कि भवेत् ॥५॥ क्योंकि ईश्वर और मुतात्मा सुखी है तो क्या वे भी विना कोडार्थायां प्रवृतौ च विहन्येन कृतार्थता। हस्तके सुखका अनुभव नहीं करते। यदि कहो कि हां, तब बहन्यापारतायं च क्लेशो बहुतरो भवेत् ॥५६॥ तो हमारे प्राप में और ईश्वरमें कुछ भी अन्तर न रहा। यदि
अर्थात - जब कुछ भी नहीं था तो सृष्टि रचनेकी कहो नहीं तो अापका यह कयन गलत हुघा कि विना प्रथम इच्छा अथवा प्रवृत्ति कैसे हुई. जब कि भापके मता- दुखके सुखकी अनुभूति नहीं होती। अत: यह बनाश्री कि नुसार ईश्वर अशरीरी है और इच्छाके लिये शरीरी होना यदि भापकाश्विर इस दुखमय जगतको बनाकर अनन्त श्रापक है । यदि ईश्वरको शरीरी माना जाये तो यह जीवोंको दुखी न बनाता तो क्या उसके ईश्वरपने में बहा प्रश्न उठता है कि उस शरीरकी रचना किस तरहसे हुई। प्राता था। यद कहो कि जीवोंका कुछ प्रयोजन नहीं था यदि उससे पूर्वशरीरको इस शरीरका कारण माना जाये तो क्या ईश्वग्ने अपने स्वार्थसाधनके लिये जगत बनाया तो उस शरीरका कारण अन्य शरीरको मानना पडेगा, इस है-यदि ऐपा है तो ऐसे स्वार्थीको ईश्वर बहने के लिये प्रकार अनवस्यादि दोष पायेगा। यदि आप उम शरीरको कौन बुद्धिमान तय्यार होगा ? यदि हो कि यह तो कृतनित्य भी मानले तो वह शरीर पृथ्वी प्रादिके विना फिस कृत्य है उसका कुछ भी स्वार्य नहीं तो यह जगत उसने
आधारपर ठहरेगा । यदि उपरोक्त प्रश्नोंको हम न भी पचा क्यों ? क्योंकि हम देखते हैं कि मूर्यसे मूर्ख व्यक्ति उठावें तो भी यह नो सभी जानते हैं कि यह संसार दुःख- भी विमा प्रयोजन किमी कार्यको प्रारम्भ नहीं करता । मय है, इसीलिये बड़े बड़े राजा महाराजाओंने भी इसके य.दे कहो कि अपने स्वभाववश योंही जगत रचता है तो स्यागमे ही कल्याण समझा है । ऐसे दुःखमय जगतको उमको नानी किस प्रकार मिद्ध कर सकेंगे क्योंकि स्वभावक बनाने की इच्छा ईश्वर जैसे दयालुके मनमें उत्पन्न होना लिये ज्ञानकी कुछ भी प्रावश्यकता नहीं है । यदि हमको उमपर निर्दयताका कलंक लगाना है। यदि इच्छा हो भी श्वरका खेल मानों तो उसमें और पागलों में पया अन्तर गई तो भी इच्छामानसे किसीके मनोरथ पूर्ण होते नहीं रहेगा क्योंकि विमा प्रयोजन निस्सार क्रीड़ा तो उन्मत्त देखे गये । प्रत. इच्छापूर्तिके लिये साधनोंकी मावश्यकता भादि ही करते हुए रष्टिगत होते हैं। फिर क्रीका भी कैसी है परन्तु प्रक्षयावस्थामें साधनों का सर्वथा अभाव था। यदि अनन्न ब्रह्माण्डका उससे रचा जाना | एक तो इस विशाल जीवोंके धर्मादिको साधन माना जाये तो वे भी प्रलयकाल में संमारकी रचना ही महान दुखरूप है। फिर उमका रमण नहीं थे। यदि दुर्जन तोषन्यायमे यह मान मीकि धर्म भाति करना तथा काँका फैमक्षा करते रहमा तो महान् अधर्मादि शेष थे तो भी प्रष्ट धम्मदिमे किसी कार्यकी दुखमय है। मक्षा ऐमा खेल खेखकर वरने दुखके सिवा मिति नहीं होती। क्योंकि हम देखते हैं कि कारीगर क्या लाभ उठाया। जिस प्रकार जगतरचनाको अवस्था कितना ही चतुर क्यों न हो परन्तु वह ष्ट साधनके विना यही हाल प्रलयका भी है। उसका भी कुछ प्रयोजन प्राप इच्छामावसे कार्य नहीं कर सकता । यदि यह कहो कि सिर नहीं कर सकते। यदि यह कहो कि धिरचनामें वेद रिवग्ने जीवापर दयाभाष जगत रचाहैतो दया तो प्रमाण है तो इसका उत्तर कुमारिलमट्टने बरे ही मनो दुखोंको देखकर होती, परन्तु प्रलयकाल में मामा मोहक शब्दों में दिया है। आप कहते है कि