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किरण ११-१२]
क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार म्वामी ममन्तभद्रकी कृति नहीं है।
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है। ऐसी स्थिति में मेरे लिये यह कहना कि देवागम और भद्रके पाय 'देव' उपपद भी जुड़ा हुआ पाया जाता है" रस्नकरण्डकको एककर्तृक सिद्ध करनेके लिये मुख्तार सा. और इसलिये उक्त मध्यवर्ती श्खोकमें पाये हुए देव' पद के उक्त प्रतिपादन प्रमाणका मुझे उपयोग करना ही केवाच्य समन्तभद्र भी हो सकते हैं ।" भागे चलकर चाहिये था, उचित नही जान पड़ता। वह तो मेरे विचार योगीन्द्र पद भी समन्तभद्र के लिये प्रयुक्त हुमा बतलाया
और इच्छापर निर्भर था । अतएव प्रो.सा. का उक्त है और इसके प्रमाणस्वरूप वादिराजमूरिमे कुछ पूर्ववर्ती लिम्बना कुछ भी महत्व नहीं रखता और न उसका विचार प्रभाचन्द्र के गद्य कथाकोषका उल्लेख प्रकट किया है। इस के साथ कोई सम्बन्ध । उनकी अन्तिम पंक्ति तो बहुत तरह उन्होंने पार्श्वनायचरितके उन नीनों ही श्लोकोंको
आपत्तिके योग्य है, क्योंकि उनके इस कथनम यह मला ममन्तभदके लिये पभावित बतलाया है। मुम्तार माहबका होता है कि उन्होंने अपने प्रस्तुत लेख लिखने तक पार्श्वनाथ यह प्रमाण महित किया गया कथन जीको लगता है और चरितको उठाकर नहीं देखा था और अब मेरे द्वारा वादि- अब यदि इन तीनों श्लाको यथास्थन प्राधारम भी यह राजसम्बन्धी पाश्वनाथरितका उन्लेख प्रम्नत किये जाने कहा जाय कि वादिराजदेवागम श्रीर रस्नकरण्डकका एक पर ही सके देखनेकी और आपकी प्रवृत्ति हहै। परन्तु ही कना-वामी समन्तभद्र मानते थे तो कोई बाधा नहीं यह बात नही है, आपने इसके पहले भी अनेक बार उमं है। दो श्लोकीके मध्यका व्यवधान भी अब नहीं रहता। विचारपूर्वक देखा है और उसके प्रस्तुन प्रकरणोपयोगी पदी दूसरी बात यह है कि वादिराज जब प्रभाचन्द्र के उत्तरवर्ती श्रीरलीकाको दूसरे स्थलापर उद्धत किया है । 'त्यागीम हैं नी यह पूर्णत सम्भव है कि उन्होन प्रभाचन्द्र के गद्य एव योगीन्द्रो' आदि श्लोकगत 'अक्षयमखावह पदको कथाकोष और रनकी रानकरगडटीकाको जिममे रत्नकरण्ड धवलाकी चतुर्थ पुस्तककी प्रस्तावना (पृ. १२) तथा
का का स्पष्टत. स्वामी समन्तभद्रोही बनाया गया है. 'सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार' नामक लेखमे
अवश्य देखा होगा और इस तरह वादिगजने म्वामी दिया है, जिन्हें प्रकाशित हुए लगभग तीन वर्षमें कुछ
समन्तभद्रशे लक्ष्य (मन.स्थित ) करक उनक लिये ही ऊपर होचुके हैं। हमके बाद 'जैन इतिहासका एक विलुप्त
'योगीन्द्र' पदका प्रयोग किया है तथा उसके द्वारा उन्हें रख
यागीन्द्र' पदका प्रयोग किया। अध्याय' नामके निबन्धमे,जो कि यथार्थत: प्रस्तुन चर्चाका करण्डका कना बन
करण्डका कनां बतलाया तो कोई असम्भव नही है। स्रोत है. 'स्वामिनश्चरित' प्रादि पूरा ही पद्य उसके फुटनोट यदि बिना कोई नुदिये ( प्रमाण ) इम बातपर जोर में उद्धृत है, और मजेकी बात यह है कि पद्यके बराबरमें दिया जाय कि वादिराज योगीन्द्र' पदकं प्रयोगद्वारा स्वामी (पार्थ नाथचरित ) इन शब्दोंके साथ ग्रन्थका नामोल्लेख ममन्तभद्र भिम दूमर ही विद्वानको रनकरण्डका कर्ता प्रति भी है। ऐसी हालतमे यह कहना कि पार्श्वनाथचरितको पादन है, जिनकी गोगीन्द्र उपाधि थी तो इसके लिये निम्न आपने अभी हाल हीमें उठाकर देखा है-इसके पहले नही दो बात मिद करनी होगी-एक तो यह किवादिराज करते देखा था, असंगत जान पड़ता है।
उन उल्लेम्बकं विषयमे पूर्णत. अभ्रान्त है-वे भ्रान्ति . अभी हाल में मुख्तार मा० ने एक महत्वका विचारपर्ण नहीं कर सकते हैं। दूसरी यह कि जैन साहिग्यमें से लेग्य' लिखा है और उसमें उन्होंने वादिराजके उन सीन विद्वानका अम्तिाव । जी योगान्द्र उपाधप भूपन
विद्वानका अस्तित्व है जो योगीन्द्र' उपाधि भूपिन रहे हों श्लोकोंकी और दष्टि रखते हुए बतलाया है कि "समस और जो रनमालाकार शिबकोट के गुरु ही तथा समन्तभद्र १ देखो, अनेकान्त वर्ष ७ किरण ५-६ में उनका 'स्वामी "अचिन्त्यमहिमा देव: मा.भिवन्द्यो हिनापिगा। समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनो थ' शीर्षक शब्दाभ येन मिन्न माधुन्वं प्रतिलम्मिना: ॥ १८ ॥ सम्पादकीय लेख।
३ "श्रा समनभद्रम्वामी रत्नान। रक्षणोपायभूतग्नकरण्डक२ दो श्लोक तो पीछे फुटनोटमें उद्धृत कर आये हैं और प्ररव्यं मम्यग्दर्शनादिग्नाना पालनो गयगन रत्नकरण्डकाव्यं तीसरा उनके मध्यका श्लोक यह है
शाम्ब कतुकामा।"
लक० टी० पृ०१
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