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अनेकान्त
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जिनका नाम हो । परन्तु ये दोनो ही बातें सिद्ध नहीं समन्तभद्रको ही योगीन्द्र' पदके द्वारा स्नकरण्डका कर्ता होती। क्योंकि वादिराज भ्रान्ति भी कर सकते हैं। जैसे कि प्रकट किया है। यहां हम यह भी कह देना चाहते हैं कि एक भ्रान्ति उन्होंने न्यायविनिश्चर्याववरण में की है । यथा- जो विद्वान् पार्श्वनाथ चरितके उक्त मध्यवर्ती लोकमे आये 'न्यायं प्राहुः स्वामिममातभद्रादय. । किं प्रशब्देन, पाहुरिति हुए देव' पदका वाच्य देवनन्दि ( पूज्यपाद ) को बतलाते पयाप्तवादिति चेन्न प्रबन्धेनाचार्योपदेशपारम्पर्येणागतमाहुः हैं उन्हे अब उसे स्वामी 'समन्तभद्र' के अर्थमे ही प्रारितिव्याख्यानार्थयात । न्याय कि प्राहः ? वेदनं देखना चाहिये । ज्ञानं । कथ प्राहु. ? स्पष्टं शब्दतादिकत्वेन परिस्फुटं यथा यहाँ हम एक बातका उल्लेख और कर देना चाहते हैं भवति तत्त्वज्ञान प्रमाणमित्यादिना नर्थव प्रवचनात ।” कि प्रो. मा. ने वादिगजके उक्त उल्लेख पर जहाँ जोर ___ यहां प्रत्यक्ष लक्षण प्राहु: इम कारिकाका व्याख्यान दिया है वहां प्रभाचन्द्र के सुस्पष्ट एवं अभ्रान्त ऐतिहामिक करते हुए वादिराज 'प्राहुः' क्रिया का का स्वामी समन्त- उल्लेखकी पर्वथा उपेक्षा की है-जसकी आपने चर्चा नक भद्रादिको बतलाते हैं जब कि वस्तुत: उस क्रियाका कर्ता भी नहीं की है, जो कि यथार्थत: समस्त प्रमाणोंमें दिनकरअक्ल कदेव और विद्यानन्दने तत्त्वार्थसूत्रकारको बतलाया प्रकाशकी तरह विशद प्रमाण है। और वादिगजसे पूर्ववर्ती है। जो कि ठीक है। क्योंकि अकलंकने स्वय राजवार्तिकमे है। सच पूछा जाय तो आपने इस ज्यादा मुस्पष्ट ऐनिहामिक अपना ऐसा भाव प्रकट किया है । अत इसमे स्पष्ट है कि प्रमाणको दबाया है और जिसका आपने कोई कारण भी वादिराज उक उल्लेखक विषयमे भ्रान्त भी हो सकते हैं। नही बतलाया है। अस्तु । क्यों कि प्रभाचन्द्र का स्पष्ट उल्लेख श्रादि प्रमाणा रत्नकरण्ड इसी मिलपिले में आपने एक बहुत ही विचित्र कल्पन! का कर्ता स्वामी समन्तभद्र को ही बतलाते हैं। साहि- और की है कि सनकरण्डके अन्तमें जो 'येन स्वय' श्रादि त्यमे ऐम समन्तभद्रका कोई अस्तित्व भी नहीं है और न १४६ वां पद्य है उसमें ग्रथकारने 'श्लेषरूपमे अपनी रचना कोई उल्लेख है जिनकी 'योगीन्द्र' उपाधि हो और जो के अाधारभून ग्रन्थों व अन्य कारोंका उल्लेख किया है।' एनमालाकार शिवकोटिके गुरु हों तथा योगीन्त' कहे श्राप लिखते हैं-'यहाँ टीकाकार प्रभाचन्द्रद्वारा बतलाये जाते हों। मुम्तार मा० ने खोजके साथ दूसरे अनेक सम- गये वान्यार्थके अतिरिक्त श्लेषरूपम यह अर्थ भी मुझे न्तभद्रोंका परिचय कराया है पर उनमें से 'योगीन्द्र स्पष्ट दिखाई देना है कि "जिमने अपने को अकलंक और समन्तभद्र' कोई भी नहीं हैं जो वादिराजके पूर्ववर्ती हो। विद्यानन्दके द्वारा प्रतिपादित निर्मल ज्ञान, दर्शन और चारित्र योगीन्द्रदेव नामक एक श्राचार्य जरूर हुए हैं जिन्होंने रूपी रत्नोंकी पिटारी बना लिया है उसे तीनों स्थलोपर परमात्मप्रकाश श्रादिकी रचना की है। पर वे एनकरण्डके सर्व अर्थों की सिद्धिरूप सर्वार्थासद्धि स्वयं प्राप्त हो जाती कर्ता नही है। कारण, एक तो उनकी प्राय अध्यात्म और है. म इच्छामात्रमे पतिकी अपनी पत्नो।' यहां निस्सन्देह योग पर ही रचनाएँ प्राप्त होती हैं जो कि उनके दोनों ही स्नकरण्डकारने तवार्थसूत्रपर लिखी गई तीनों टीकाश्रीका प्यारे विषय थे। दूसरे, उत्तरवर्ती किसी भी ग्रन्थकारने इन्हें उल्लेख किया है। सर्वार्थ सिद्धि कही शब्दश: और कहीं रत्नकरण्डश्रावकाचारके कर्तारूपस उल्लेखित नही किया। अर्थतः अकलककृत राजवातिक एव विद्यानन्दीकृत श्लोकपद्मप्रभमल धारिदेवने तो दोनाका जुदा २ उल्लेख भी किया वार्तिकमे प्रायः पूरी ही प्रथित है। अत: जिमने अकलं ककृत है। तीसरे, स्वयं प्रो० मा० भी उन्हें रत्नकरण्डका कर्ता और विद्यानन्दिकी रचनात्रोंको हृदयंगम किया है उसे नहीं मानने । शास्त्रमारसमुच्चयके कर्ता माघनन्दि भी सर्वार्थ सिद्धि स्वयं श्रा जाती है।" परन्तु आपका यह 'योगीन्द्र' कहलाते थे पर वे वादिगजके उत्तरकालीन हैं लिखना प्रमाणवाधित है। प्रथम तो आपकी यह काल्पनिक
और जिनका समय प्रेमीजीने 'वि. स. १२६७ के लगभग' बात किसी भी शास्त्राधारसे सिद्ध नहीं है, इसके लिये अर्थात् १३ वी शताब्दी अनुमानित किया है। ऐसी दशामे आपने कोई शास्त्रप्रमाण प्रस्तुत भी नहीं किया । दूसरे, यही निषकर्ष निकाल ना उचित है कि वादिराजने 'स्वामी जो श्रापने श्लोकके 'त्रिपु विष्टपेषु' का श्लेषार्थ 'तीनों