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किरण ११-१२]
क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है ?
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स्थलोंपर' किया है, कृपया बतलाइये कि वे तीन स्थल काम और मोक्षरूप अर्थोकी सिद्धि रूप अर्थमे उसका प्रयोग कौन हैं ? जहाँपर सर्व अर्थोकी सिद्धिरूप 'सर्वार्थ सिद्धि' हुआ है। अत प्रो०मा० की उपरोक्त कलाना शााधारमे, स्वयं प्राप्त हो जाती है। शायद आप तस्वार्थसूत्रपर लिखी युक्तिये, स्वयं प्रन्थकारके वर्णनमे और अनुभवमे बाधित गई तीनों टीकाएँ तीन स्थल कहें, सो उनमें एक तो स्वयं होने किसी भी तरह संगत नहीं है। यह हम उपर्युक्त सर्वार्थसिद्धि ही है जिसका ग्रहण तीन स्थलोंके अन्तर्गत विवेचनद्वारा देख चुके हैं। किसी भी प्रकार नहीं आ सकता। क्योंकि उसका श्लोकमें इस सबका फलितार्थ यह हुआ कि कोई बाधक प्रमाण अलग ही उल्लेख है। तब तत्वार्थसूत्रकी दो ही टीका न होने तथा साधक प्रमाणोंके होने से वादिराजका भी अभिशेष रहती हैं। एक तरवार्यवार्तिक और दूसरी विद्यानन्दकी प्राय रस्नकरण्डको प्राप्तमामांपाकारकृत ही बनल नेका है। श्लोकवार्तिक टीका। जिनमे जरूर सर्वामिद्धि कहीं शब्दश: और इसलिये वह विद्यानन(हवीं शता.) के बाद की रचनाऔर कहीं अर्थत: पूरी ही प्रथित है। लेकिन फिर सिद्ध नही होसकती क्योंकि विद्यानन्दके भी पूर्ववर्ती मिद्धमन श्लोकमें 'त्रिषु' और 'बिष्टपेषु' पद नहीं होना चाहिये दिवाकारने, जिनका समय वि. की ७ वी शताब्दी माना 'द्वयोः' और 'विष्टपयोः' पद ही होना चाहिये था, जाता है, अपने 'न्यायावतार' में स्नकरण्डके 'प्राप्तोपज्ञ' जो न तो छन्दृष्टिसे संगत हैं और न ग्रंथकारके नामके श्लोकको अपनाया है। जैसा कि हम पूर्व लेखमें मयु. श्राशयके अनुकूल ही हैं। वास्तव में प्रो. मा० ने श्लोकमें क्तिक बतला पाये हैं और जिसका प्रो० मा० ने कोई श्राये हुए वीतकलंक, विद्या और सर्वार्थ सिद्धि इन तीन खण्डन भी नहीं किया है। अब चूंकि रत्नकरण्डका अधार पदोको देखकर ही उक्त कल्पना कर डाली है और 'सर्वार्थ प्रो. सा. की कल्पनानुसार न तो अकलङ्क और विद्यानन्द सिद्धि' पद को तो एक जुदे ही टाइप में रक्खा है। यदि वे के तत्वार्थवार्तिक और श्लोकवार्तिक ही सिद्ध हो सके हैं उसी ग्रन्थके श्रादिमें पाये हुए तीसरे श्लोकको' भी देख और न पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि । श्रतएव 'सवार्थमिद्धि' में लेते तो उक्त कल्पनाका उद्भव शायद न होता, जहाँ ग्रंथ. जो रत्नकरण्डये तुलनात्मक वाक्य पाये जाने हैं उन परमे कारने स्पष्टत: सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र भी रत्नकरयडश्रावकाचारकी रचना पूमपार (४५०ई०) इन तीन रत्नोंका ही उद्देश करके उन्हें धर्मका स्वरूप से पूर्व पहुंच जाती है। जैसा कि पिछले लेखमें कहा जा बतलाया है अर्थात उन्हें ही धर्म कहा है और मोक्षपद्धति चुका है। अतः इन सब प्रमाणीकी रोशनीम रनकरण्डको होनेका संकेत किया है। तथा 'उद्देशानुसारेण लक्षण. स्वामी ममन्तभद्रकी ही कृति मानना चाहिये। कथनम्' इस न्यायानुसार आगे ग्रन्थमें उनका ही लक्षण- अब हम प्रो. सा. की उन तीन बातों पर और निर्देश किया है । तमाम ग्रन्थमें इन्हीं तीनका विवेचन है। विचार करना चाहते हैं जिन्हे उन्होंने अपने लेखके यन्त अतएव ग्रन्थकर्ताने अन्तमें उपसहाररूपसे उन्हीं तीन 'सद में मेरी एक बातके उत्तरमें उपसहाररूपसे चलती सी दृष्टि-ज्ञान वृत्तान' को दोहराया है और उन्हे भव्य-जीवों लेखनीमे प्रस्तुत की हैं। वे इस प्रकार हैं . के लिये अपनी प्रामाका पिटारा बनानेकी प्रेरणा की। (१) श्राप्तमीमांपामें दोषका स्वरूप क्षुधादि स्वीकार यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि 'सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि' नह
। नहीं किया है। वाक्यमें आये हुए 'सत्' शब्दक अर्थमें ही 'बीतकल' पर
(२) विद्यानन्दको भी दोषका स्वरूप क्षुधादि इष्ट
नहीं है। का और 'दृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि के स्थानमें 'विद्या-दृष्टि क्रिया' पद
(३) अष्टसहस्री और श्लोकवातिकके व्याख्यानमें कोई का उक्तश्लोकमें प्रयोग किया गया है, अकलंक और विद्यानन्दि
विरोध नहीं है। के अर्थ में नहीं और न 'सर्वार्थ सिद्धि' पदका प्रयोग पूज्यपाद (१) पहली बातके समर्थन में मापने केवल दोषावरणकी मर्वार्थ सिद्धि प्रन्यमें अर्थ में हुआ है। अपितु धर्म, अर्थ, योहानिः', '
निर्दोषः' 'विशीर्णदोषाशयपाशबन्धम्' 'स्वदोष१ "सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धमेश्वरा विदः।
मूलं स्वपमाधितेजसा' जैसे कुछ पद वाक्योंका ही अवलम्बन यदीयमत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥"-रत्नक०३ लिया है. जिनमें वस्तुत: 'दोष' शब्दके प्रयोगके अतिरिक्त