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अनेकान्त
[वर्ष ७
उपका स्वरूप कुछ भी नहीं बतलाया । हो, विद्यानन्दने मान्यताको स्पष्टत: और अष्टसहस्त्रीमें गौणत: स्थान दिया अवश्य दोषार सावदज्ञान-राग-द्वेषादयः' कह कर प्रज्ञान, गया है। प्राशा है प्रो. सा. इस पर विशेषत ध्यान देंगे। राग और द्वेषादिको दोषका स्वरूप बतलाया है; पर मैं उस प्रश्नके पोषणमें जो दलीलें दी गई हैं वे बहुत ही प्रापत्ति. के सम्बन्धमें यह स्पष्ट कर पाया हूं कि "विद्यानन्दके व्या. जनक और बाधित हैं। क्या किसी टीकाकार या उत्तरवर्तीख्यानका भी, जो उन्होंने का० ५-६ में किया है, यही ग्रंथकारके लिये यह लाजिमी है कि वह पूर्ववर्ती सभी प्राशय लेना चाहिये। दूसरे वहीं उनका दृष्टिकोण दार्श. ग्रन्थोंपर टीका लिखे ही? यदि ऐसा हो तो स्वयं विद्यानंद निक भी है। अत: उमको लेकर उन्होंने दोषका निश्लेषण के सन्मुख स्वामी समन्तभद्र का ही स्वयम्भूस्तोत्र भी था किया है और दर्शनान्तरों में भी मान्य अज्ञान राग और सब उस पर उन्होने टीका क्यों नहीं लिखी ? अकलंकदेवके द्वेषको कण्ठोक्त कह कर आदि शब्द द्वारा अन्यों-तुधारिकों सामने युक्त्यनुशासन और स्वयम्भू स्तोत्र दोनों अटीक थे का ग्रहण किया है। यदि ऐसा न हो तो उन्हींके श्लोक- एवं मौजूद थे तब उन्होंने भी उन पर अपनी टीकाएँ क्यों वार्तिकगत (पृ. ४१२) व्याख्यानमे, जहां मचलतासे नहीं लिखी ? प्रभाचन्द्र ने एनकरण्ड और स्वयम्भूस्तोत्र
धादि वेदनाओंका केवलीमें प्रभाव सिद्ध किया है, विरोध दोनोंकी टीकाएं की हैं और वे केवलीमें धादिवेदनाओं के भावेगा जो विद्यानन्के लिये किसी प्रकार इष्ट नहीं कहा जा अभाव सम्बन्धी मतके प्रबल पोषक भी थे तब उन्होंने भी सकता।" और । पहले इसी लेखमें यह अच्छी तरह स्वयम्भूस्तोत्रकी टीका या कमसे कम प्रमेयकमलमार्तण्ड मिद्ध भी कर पाया हूँ कि प्राप्तमीमांसाकार और उनके में अपने मतके समर्थनार्थ रत्नकरण्डके 'क्षुत्पिपासाजरातङ्क' टीकाकारोंको दोषका स्वरूप क्षुधादि अभिमत है और उसे मादि उल्लिखित श्लोकका अवतरण क्यों नहीं दिया? और उन्होंने कारिका २ में प्रकट भी कर दिया है। अत: इस उसमे अपने मतको विशेषत: प्रमाणित क्यों नहीं किया ? सम्बन्धमे घव और अधिक कहना अनावश्यक है। इससे स्पष्ट है कि उत्तरवर्ती टीकाकार या ग्रंथकारकी इच्छा
(२) दुसरी बातके समर्थनमे श्राप कहते हैं कि "यदि पर यह निर्भर है कि वह पूर्ववर्ती ग्रन्थपर टीका लिखे या विद्यानन्दको प्राप्तमीमांसाकारके दोष' शब्दसे वही भर्य न लिखे या अपने विषयके समर्थनार्थ उसके प्रमाणको अभीष्ट था, जो स्नकरण्डकारको है तो मैं न्यायाचार्यजीस उपस्थित करे या न करे । अत: विद्यानन्दके रत्नकरण्डपर पूछता हूं कि उन्होंने वही स्वरूप वहां क्यों नहीं प्रकट टीका न लिखने या उसका अष्टहस्त्री आदिमें अवतरण न किया? ... ' इस परसे स्वभावत: यह अनुमान भी किया देनेसे यह अनुमान करना कि 'उनके समक्ष स्वामी समन्तजा सकता है कि यदि उनके सन्मुख उन्ही समन्तभद्रकृत भद्रकी रनकरण्डश्रावकाचार जैसी कोई रचना विद्यमान न रस्नकण्डश्रावकाचार जैमा ग्रंथ होता तो वे उस पर भी थी। सर्वथा भ्रमपूर्ण है और वह अनुमानाभासकोटिमें अपनी टीका लिखते या कमसे कम उसका अवतरण देकर स्थित है। इस सम्बन्धमें बहुत कुछ लिखा जा सकता है। भाप्तमीमांसामें दोषका अर्थ अवश्य ही उसीके अनुसार पर विद्वानों के लिये संकेत ही काफी है। अत: विद्यानन्दके करते, क्यों कि वे केवलीमें सुधादिवेदनामोंके प्रभावसम्ब. समक्ष रस्नकरण्डके रहते हुए भी उनकी उस ओर इच्छा न न्धी मतके प्रबल पोषक थे।" यहां जो मुबसे प्रश्न किया होनेसे उन्होंने उस पर न टीका लिखी और न उसके अवगया है उसका उत्तर मैं पहले विस्तारसे दे पाया हूं और तरणको देना आवश्यक समझा। कह पाया हूं कि विद्यानन्दने प्राप्तमी० का०२ के व्याख्यान (३) अष्टसहस्रीमें दोषका स्वरूप क्षुधादि न माननेपर में दोषका स्वरूप वही स्वीकार किया है जो रत्नकरण्डमें हमने श्लोकवार्तिकके व्याख्यानके साथ विरोध प्रदर्शित किया है-उसे छोदा नहीं गया है। सायमें हमें यह भी नहीं था। उसके परिहारका प्रयत्न करते हुए प्रो० सा. लिखते भूलना चाहिये कि अष्टसहस्री जहां मूलत: दार्शनिक रचना है कि "विचार करनेसे ज्ञात होता है कि यथार्थत: वहां है वहां श्लोकवार्तिक दार्शनिक होते हुए भी मूलत: भाग- ऐसा कोई विरोष उत्पन्न नहीं होता। टीकाकारका कर्तव्य मिक रचना है। अत: रखोकवार्तिकमें तो रस्नकरण्डकी है मूल ग्रंयके अभिप्रायको उनकी परिपाटीके अनुसार व्यक्त