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किरण ११-१२]
अहिंसाकी विज्य
करना।" परन्तु इस विधानको प्रागे आकर यह कहते हुए कृपया देखें, उन ममीमें दोषका स्वरूप धादि माना गया कि "यदि विचार कर देखा जावे तो वहां पर भी उनका मिलेगा। जिन दो विचार-पारामोंको वे उनमें देख रहे हैं, तथा उनसे पूर्ववर्ती दोनों टीकाओं अर्थात् सर्वार्थ सिद्धि और वह केवल भ्रम है। राजवानिकका मत तस्वार्थसूत्रकारके मतसे मेल नही अतएव दोषके स्वरूपसम्बन्धी प्रातमीमांसा और साता।" उपेक्षित कर दिया है। ऐसी हालतमें उसके रत्नकरण्ड दोनोंका एक ही अभिप्राय है और इस लिये माधारसे जो विरोध-परिहारका प्रयत्न किया गया है वह इस बाषकाभाव और दूसरे साधक प्रमाणस यह स्थिर कोई स्थिरता एवं समीचीनताको लिये हुए नहीं है। अतः हुआ कि दोनों प्रथोंका कर्ता एक ही व्यक्ति और वे प्रो. सा. पूर्वोक्त विवेचनके प्रकाशमें प्राप्तमीमांसा, अष्ट. भातमीमांसाके का स्वामी समन्तभद्र । सहबी, श्लोकवातिक और तस्वार्थसत्र मादिको समनासे
वीरसेवामन्दिर, ११-८-४१
॥अहिंसाकी विजय
विश्वके हित बह रहा हो, प्रेमका अविगम निर्भर-- रोम रोम स्वतन्त्र हो, बन्दी न हो जीवन तथा स्वर । एकता समता क्षमा सौहार्द, जागे उत्तरोत्तर, बह रही हो शान्ति जननी, शुद्ध हार्दिकतर निरन्तर ।
विश्व-क्षाके लिये अन्तर, मदा हो प्रोत्माहित, हो धगमय घोर हिसा, भावना होकर पराजित । घोर हिंसा अाज है, बुझते प्रदीपोका उजाला, विश्वमें होगा अहिंसा, मन्यका फिर बोल बाला।
फिर बहाएगा जगत में, रक्त मानवका न मानव, गुजरित होगा अहिंसक, वीरके सन्देशका रव । जग जलानेके लिये, कोई न फिर दीपक जलेगा, अमर जीवन दीप जलकर, विश्वभरका तम हरेगा।
आज हिसा दानवीके, केन्द्र में भीषण प्रलय हो, विश्वके सौभाग्य हित, क्षण-क्षण अहिमाकी विजय हो।
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कल्याणकुमार जैन 'शशि'