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भगवान महावीर
(ले०- श्री. सुमेरचन्द्र दिवाकर न्यायतीर्थ शास्त्री, बी० ए० एल-एल० बी०)
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नमेनाचार्य कहते हैं, जब विश्वमें अशांतिका हुना। मयूरकी ध्वनिके सुननेमात्रम जैसे चंदनके वृक्ष में साम्राज्य छा जाता है. धर्मका प्रदीप बुमनेमा लिपटे हुए विषधर ढीले होजाते हैं, वैस ही उन महान लगता है और लोग पापोंकी ओर उन्मुख प्रामाके गर्भ मानेपर हिसाम लोगोंकी विरक्ति शुरु हो होने लगते हैं, तब जिनोत्तम तीर्थकर प्रभुका चली। देवोने, दानवोंने, मानवोंने और प्रकृतिने भी अपना जन्म होता है । आजसे लगभग ढाईहजार महान् प्रानंद व्यक्त किया । जब चैत्र शुक्ला त्रयोदशीको वर्ष पहले इस भारतवर्षका वसुधातल महान सीपमेसे मोतीके समान, अत्यन्त क्रान्ति, प्रताप तेज प्रभृति
पाखंडो और पापप्रचारको द्वारा कलंकित गुणभूषित शिशुने माता त्रिशलाके उदरसे जन्म लिया, तब होरहा था । अनेक लोगोंने अपने पापापे छूटनेका तरीका सम्पूर्ण विश्वमें शांति और श्रानदका मिन्धु हिलोरें मारने जीवोंके वधको समझ रखा था । 'धर्मम्य मूलम् दया' के लगा। और की तो बात ही क्या नारकीयोंको भी अंतर्महर्त भावको पूर्णतया भुलाकर तत्कालीन पुरोहित श्रादिकोने के लिए शान्तिसे सांस लेनेका मौका मिला । देवदेवेन्द्रोंक जीवित हाणियोंकी बलि करनेका मार्ग प्रचारित किया था। प्रासन कपित हुए । उनके मस्तक झुक गए । मानों वे यह उस पापमयी निविद निशामें सन्मार्गप्रकाशकका दर्शन बताते थे कि विश्वमें सबमे पूज्य और पवित्र पारमा माता दुर्लभ न रहा था । जुगनूके समान करुणाके मार्गका त्रिशलाके यहां अवतरित हुआ है, तुम लोग यहां कैसे प्रकाशन करने वालेकी भी प्राप्ति कठिन थी। यज्ञमें होमे बैठे हो । सभीने उस दिन अपनेको धन्य माना । लोग उस जाने वाले पशुओंके करुण कन्दनसे श्राकाश फटा जा रहा महापुरुषको महावीर प्रभुके नामसे कहने लगे। वैसे तो था। उनके रक्तसे यह जमीन जाज होरही थी । वेदादि लोकोत्तर गुणों के कारण उनको अनेक नामोंसे संकीर्तित शास्त्रोंकी दुहाई देकर तत्कालीन विप्रवर्ग पशुबलिकी तो करते थे, किन्तु प्रचलित नाम 'महावीर' था। महावीर प्रभु बात ही क्या है, नर-बलि तकका समर्थन करके लोगोंको कहने में और देखनेमे शिशु थे, किन्तु उनका धारमा 'अवधि' गुमराह कर रहा था। उसी भीषण स्थितिको लक्ष्यमे रख नामक दिव्यज्ञानसे अधिकृत था। ममय जाते और सुखकी कर कविकालिदासने अपने 'मेघदूत' में चबल नदीको घनियां बीतते देर न लगी । शिशुवसे वर्धमान होकर "चर्मवती' के रूप में वर्णित किया है. क्योंकि वह रक्तको उन्होने कुमारावस्था प्राप्त की। उनका तेज, उनकी शांति प्रवाहित करनेवाला महान् नद होगया था।
उनका बल, सब कुछ अतुलनीय था । एक दिन दो इसी पापके युगमें जगत यही चाह रहा था कि कोई
श्राकाशगामी महान् तपस्वी योगियों को तबके विषयमें
सूक्ष्म शंका होगई थी । उन्होने जब कुमार महावीरका अहिंसाका अधिदेवता करुणाकी सजीव प्रतिमा अवतरित
दर्शन किया, तो शंकाका निराकरण होगया । इससे उन होकर उन अगणित मूक जीवोके कष्टोंका निवारण करे।
मुनियोंने न्हं 'सम्मति' नामसे संकीर्तित किया। बोगोंकी और मूक प्राणियोंकी अभ्यर्थनाई विफल नहीं हुई। कारण, विहारप्रांतके भूषणरूप कुंडपुर ( कुंडलपुर एक समय अनेक राजकुमारोंके साथ प्रभु ऊद्यानमें मगर) में महाराज सिद्धार्थ के यहां महारानी त्रिशलादेवी कीड़ा कर रहे थे। एक महान सर्पराज वहां दिखाई पड़ा। के गर्भमें एक पुण्य पुरुप अवतरित हुए । तबसे ही ये सभी राजकुमार एक विशाल वृक्षपर चढ़े हुए थे। जब पापियोकी, हिंसकोंकी मनोवृत्तिमे अन्तर पड़ना प्रारंभ उस नागराजने वृक्षपर चढ़ना भारम्भ किया, तो सभी