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किरण ११-१२]
भगवान महावीर
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राजकुमार घबचाकर कूदे और जान छोड़ कर भागे, किन्तु स्व और अज्ञानमे निमन जगतको कल्याणके मार्गपर प्रभुकी गंभीरता और दृढ़तामें तनिक भी परिवर्तन न हुश्रा। लगाऊँगा, जिमसे सबका दुःख दूर हो। वे उस नागराजको वशमें करते हुए सरलतासे नीचे उतर महावीरका निश्चय डिग और अचल था । उनका श्राए ।
युनिवाद भी अजेय था । उनने आजन्म ब्रह्मचर्यकी महान इसी प्रकार महावीर प्रभुके बाल्यकालकी प्रत्येक घटना प्रतिज्ञा ली और सपूर्ण राजकीय वैभवका परित्याग कर महत्वपूर्ण और आश्चर्यकारी हुआ करती थी। ऐसे प्रतापी प्रकृतिः दत्त दिगम्बर मुद्रा धारग की। वे बालककी भांति पुत्रके कारण महाराज सिद्धार्थ और महारानी त्रिशलाको निर्विकार थे। दिगम्बर अवस्थामें प्रभु ऐसे मनोहर एवं अवर्णनीय श्रानंद, शांति तथा गौरवकी प्राप्ति होती थी। दिव्य मालूम पडते थे, मानो मेघघटास शून्य भासमान
भुकी रूपराशि तो लावण्यका समुद्र ही प्रतीत होती भास्कर ही हो। थी। अनेक सुरवालाएँ अनिमिष नयनोमे उनकी मनोरम
मुनिपदको अंगीकार करके प्रभुने अद्भुत प्रारिमक दृढ़ता मुद्राका दर्शन कर तृप्त नहीं होती थीं, किन्तु महावीरका का दिया। बोलेको
प्रारमनियामें अत:करण विकारविहीन था। वह पूर्णतया निर्जिप्त था।
तनिक भी बाधा नहीं पहुँचा सकते थे। शैलशिला उनकी एक कवि कहता है
शय्या थी। गिरिगुहा वमतिका थी । प्रकृतिकी सपूर्ण चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि
मामग्रीक मध्य वे मजीव प्रकृतिके देवता जैसे प्रतीत होते तिंमनागाये मनो न विकारमार्गम ।
थे। पाणिपात्रमें वे शुद्ध आहार लेते थे। मन वचन और कल्पान्तकालमरुता चलिातचलेन
काय उनके अधीन थे। निंदा, स्तुति, शत्रु-मित्रकी कल्पना कि मंदगदिशिखरं चलितं कदाचित ।।
से वे परे होकर वीतराग बन गए थे। महान मौनबती थे। 'देवांगना हर सकी मनको न तेरे,
विना पूर्णता प्राप्त किए उनने उपदेश देना ठीक नहीं अाश्चर्य, नाथ ! इसमें कुछ भी नहीं है।
समझा। उनकी तपस्या अचिंतनीय थी । द्वादश वर्षकी कल्पान्तक पवनसे उड़ते पहाड,
महान साधनाके फलस्वरूप वैशाख सुदी दशमीके अपराह्न पै मंदरादि हिलता तक है कभी क्या ?
में प्रभुको कैवल्यकी-सर्वज्ञताकी-लोकोत्तर ज्योति प्राप्त महावीरके समक्ष लोकोत्तर अपार श्रानदप्रद सामग्री
होगई। अब संपूर्ण विश्वके पदार्थ अपनी त्रिकालवर्ती थी जिपके द्वारा अन्य जन तीवविषयासक्त हुए बिना न पर्यायों महित उनके दिव्यज्ञानके गोचर हो उठे। रहते, किन्तु महान तवदर्शी होनेके कारण ! भुका वैभव,
बुद्धदेवने स्वयं उनकी सर्वज्ञताकी चर्चा करते हुए विभूतिसे उतना ही सम्बन्ध था, जितना कि सरोजका
कहा है 'क्या कहूँ ! मुझे नातपुत्न (ज्ञानृपुत्र मवज्ञ महावीर सरोवरमे। एक दिन प्रभुको तारुण्यश्रीस समन्वित देखकर माता
की पर्वज्ञता नही प्राप्त हुई । क्या उमका कोई अन्य
उपाय है।" पिताने उनके विवाहका विचार किया। जब यह बात प्रभु को ज्ञात हुई, तब उनने अत्यन्त नम्रतापूर्वक इस विषय में
योगविद्याके पारगामी भगवान महावीरने जो सस्यका अपनी अनिच्छा प्रगट की। उनने कहा 'तात | मेरे जीवन सवामीण दशन किया था, उपका प्रतिपादन श्रावण कृष्णा का ३० वर्ष जैसा बहुमूल्य समय विषयोंके मध्य में व्यतीत के सुप्रभानमंगजगिरिके विपुलाचल शैलपर प्रारम्भ किया। होगया. अब केवल ४२ वर्षका जीवन और शेष है। प्रत मनुष्यों, देवेन्द्रोंकी तो बात ही क्या पशु पक्षी तक प्रभुकं एवं इस अमूल्य समयको मैं विषयासक्तिमे अपव्यय नही प्रवचनोंको सुननेको बाते थे और अपना कल्याण करते थे। करना चाहता । विषयोंकी आराधनासे त्रिकाल में भी जीव प्रभुने कहा-"प्राणीमात्र शांतिलाभके लिये प्रयत्न करते की तृप्ति नहीं हो सकती है। मैं श्रात्म जागृतिके निमित्त है, किन्तु फिर भी दुखी देखे जाते हैं । सुखका सचा तपस्वीका जीवन व्यतीत करूँगा। कर्मजाल में जकड़े, मिथ्या- उपाय प्रारिमक पवित्रता है । यह जीव अपने कर्मों के