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अनेकान्त
[वष ७
अनुसार सुख दुःम्ब मोगता है । कर्मोंका बंध करने या दायित्वपूर्ण जीवन में लगे हुए नरेशों प्रादिको अकारण उनका उच्छेदन करनेमें प्रत्येक प्रारमा स्वतंत्र है । प्रारम- हिंसा करनेका निषेध किया है, जिससे अन्यायपूर्ण वृत्तिका शक्तिको जागृत कर यह जीव स्वयं परमात्मा बन सकता प्रतिकार तथा प्रतिरोष हो । 'शमः भूषणं यत्तीनां, न तु है। विषयवासना, अंधश्रद्धा, अज्ञानके कारण यह अनंत भूपतीनां' । अहिंसाका पाराधक अावश्यकता पड़नेपर ज्ञान प्रानंद तथा शक्तिका अधीश्वर अामा अनंत संसारमें उचित उपायान्तरके प्रभाव में शस्त्रादिकका संचालन करके ठोकरें खाता हुमा परिभ्रमण करना है । प्रारमनिर्भरता, अन्यायका निराकरण तथा न्याय देवताकी प्रतिष्ठाका संरक्षण अामनिर्मलता, आत्मज्ञान, आत्मनिमग्नताके अवलबनसे यह कर सार्वजनिक अहिंसाकी रक्षा करता है। जीव संमारके संपूर्ण दुःस्वोका प्रात्यंतिक क्षय करके मुक्ति कुछ सांप्रदायिक दृष्टिवाले भारतवर्षकी पराधीनताका निर्वाणका परमपद प्राप्त करता है। विषयोंकी आराधना, दोष महावीरकी अहिंसापर लादते हैं। वे यह भूल जाते हैं इन्द्रियों की पुष्टि से निकाल में भी शांति न मिलकर प्रांतरिक कि देशका पवन धर्मान्धता, फूट, कलह श्रादिके कारण श्राकुजता तथा व्यथाकी वृद्धि होती है।
हुश्रा । जब तक देशने महावीरकी हिमाके अनुसार प्रवृत्ति प्रभुने बताया कि जीव-वलिदान या प्राणि हिंसाप कभी की, तब तक वह विश्वका गुरु, शांति तथा समृद्धिका भी सथी शांति नही मिलेगी । अत्मामे जो रागद्वेष, मोह क्रीड़ास्थल रहा था । जबसे महावीरकी शिक्षा भुलाई गई, प्रादि पशु-प्रवृत्तियां हैं उनका बलिदान करना चाहिए। तबसे ही पतनकी पीडापद कथा प्रारम्भ होती है। बिम्बजो दूसरे जीवोंकी रक्षा न करेगा, उसे कभी भी शांति नहीं सार. चन्द्रगुप्त श्रादि महावीर के आराधक नरेशोंके राज्यमें मिलेगी। भानदके फूल करुणाकी शाखापर लगा करते हैं। भारतवर्ष सर्वप्रकारमे समुन्नत रहा है, इस बातका साक्षी
भगवामने कहा-'तव अनेक धारमक है । तस्वके एक इनिहास भी है। अशको पूर्ण सत्य मानकर ही दार्शनिक लोग खंडन-मडन भगवानके शिक्षण के एक अंग अहिंसा तत्वका विशेष के चक्रमे घूमा करते हैं। सत्यांशको पूर्ण सत्य समझना जोरके साथ बुद्धदेवने भी प्रचार किया । इसी प्रकार मत्यकी प्रतिष्ठाके विरद्ध है। उचित यह है कि अन्य के पश्चात्वर्ती हजारों महापुरुषोने भी अहिंसातत्वका प्रचार सत्यके दृष्टिकोण को जानकर उपकी मिदंयना या निर्भयता- किया । महावीर भगवानकी अहिंसाके प्रबल प्रचारके पूर्वक हत्या न करना चाहिए। सत्यांशका तिरस्कार करने कारण उस समय वैदिक हिंसा बंद होगई थी। इसे वैदिक वाला स्वय अपने पावॉपर कुठाराघात करता है । वस्तुके पंडित स्व. लोकमान्य तिलकने भी स्वीकार किया है। जिस अशको हम प्रधान करते हैं वह मुख्य बन जाता है, प्रभुने सस्यके प्रत्येक स्वरूपको अपनी दिव्य देशनाके अन्य अंशोंपर प्रकाश न पड़ने से वे गौण होजाते हैं, उनका द्वारा प्रकाशित किया था, जिसको उनके पश्चात्वर्ती जैनपूर्णतया प्रभाव नहीं होता हे । बौद्धिक जगतमें यदि मान- ग्रंथकारीने लिपिबद्ध किया है। उसमें प्रारमशुद्धि तथा सिक निष्पक्षपात (Intillectual impartiality) विश्वशान्तिका अपूर्व भंडार भरा है । ३० वर्ष पर्यन्त स काम लिया जाय, तो वहां भी मैत्री स्थापित की जा विभिन्न देशो विहार करके भगवानने कार्तिक कृष्णा चतुसकती है। अपने भिन्न रष्टिकोणको सहसा मिथ्या कह र्दशीकी रात्रि के अंतिम प्रहरमें पावापुरी (विहार) से निर्वाणदेना ही विरोध और कलहका मूल है
मुक्ति प्राप्त की। उस पुण्य दिवसकी स्मृतिमें दीपावल्लीका वौद्धिक मैत्रीका उपाय बताकर प्रभुने विश्वमैत्रीके लिये उत्सव अब तक संपूर्ण देशमें मनाया जाता है। लिए जीवरक्षा-अहिंसाका मार्ग बनाया । गृहस्थके लिये यदि हम महावीर प्रभुकी वाणीका मनन और अनुगमन यथाशक्ति और यथासंभव पररक्षाका उपदेश दिया। प्रभुने करें, तो हम भी महावीर बन जायंगे । हममें 'सन्मति' गृहस्थों को मर्यादापूर्ण अहिंसाकी शिक्षा दी, जिससे उनकी का प्रकाश होगा और हम पूर्णतया 'बर्द्धमान' होंगे। लोकयात्रा निष्कण्टक होवे । प्रभुने उत्कृष्ट शांतिको तपोवन- हमारा कर्तव्य है कि महावीरके उपदेशामृतको स्वयं वसी तपस्वियोंका भूषण कहा है, किन्तु संसारके सत्तर- पान करें और अन्य दूसरोंको भी पान करावें।