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अनेकान्त
[वर्ष ७
तत्वज्ञानी ही अर्थ ग्रहण किया है।" किसी भी तरह संगत श्लोकों) के आधारस मुख्तारसाहबने अपने 'स्वामीममन्तनहीं है। क्योंकि परीक्षा करक देख लिया गया है कि वे भद्र' की प्रस्तावना ( पृष्ठ 11 ) में यह प्रतिपादन किया है पंक्तिग स्वयं अष्टपहर कारका मत नहीं हैं - श का कारका कि 'इस ग्रंथ (पार्श्वनाथचरित ) में माफ तौरमे देवागम मन हैं। दूपरे, यहों वीतरागस्य तत्वज्ञानवत:' ऐमा जुदा और रत्नकरण्डक दोनोंक कर्ता स्वामी समन्तभद्को हो ही विभक्तिक प्रयोग है जिसका अर्थ है 'वीतरागके और सूचित किया है।" इस पर प्रो. मा. मुझपर आक्षेप तस्वज्ञानीक' । यदि उसका 'अपाय वीतराग तत्वज्ञानी ही करते हुए लिम्बने है-- अर्थ हो तो 'वीतरागतत्वज्ञानवत:' ऐसा समस्तरूप प्रयोग 'इन (मुख्तार मा० की) पंनियों को देखते हुए हमें होना अधिक संभव था परन्तु ऐसा प्रयोग न करके विद्या. पाश्चर्य होता है कि न्यायाचार्यजीने अपने प्रस्तुत लेखमें नन्दने 'वीतरागस्य तत्वज्ञानवत.'एमा व्यस्त ही प्रयोग किया इस प्रबल प्रमागाका उपयोग क्यो नही किया ? उसे तो है जो उनके अपने वीतरागी विद्वांश्च मुनिः', 'वीतरागस्य उन्हें अपने मतकी पुष्टिमे अधिकसे अधिक प्रबलताके साथ कायक्लेशादिरूपदु खोपत्तेपिदुपस्तत्वज्ञानसंतोषलक्षणमुखो. प्रस्तुत करना चाहिये था । पर उन्होने वादिगजके रन. त्पत्त:' व्य व्यानके सर्वथा अनुकृत और सुसात जान करण्डक सम्बन्धी उल्लेख का नो कथन किया, किन्तु उन्ही पड़ता है। वास्तवमे प्रो० सा० को यहां यही भ्रम हुश्रा के द्वारा मुस्तार मा० के अवतरणानुसार ठीक उसी पूर्वके है कि वीतराग' और 'विद्वान्' ये दो एक ही मुनिरूप श्लोकमे उल्लिखित अप्तमीमामाकी बातकी व मर्वथा छपा व्यक्तिक विशेषण हैं। जब कि वस्तुस्थिति इसके प्रतिकृल गये । इसका कारण हमे तब ममममे पाया जब हमने है और वे एक एक सातत्र ही दो मुनिव्यक्तियोके विशेषण वादिराजकृत पार्श्वनाथ चरितको उठा कर देखा।" हैं। अर्थात-वीतरागमुनि श्रीर विद्वान मुनि ये दो उसके परन्तु उनके इस लिखने में कुछ भी मार मालूम नही वाच्य हैं।
देता। किसी भी विचारकके लिये यह कोई लाजिमी नहीं अत: यह साफ है कि 'वीतरागो मुनिर्विद्वान्' में वीत. होना कि उसे अपने पूर्ववर्ती विचारकोके मभी विचारामे रागमुनि -माधुपरमेष्ठी और विद्वान् मुनि- उपाध्याय सहमत ही होना चाहिए । विचारकोमे विचार-भेद परमेष्ठी अर्थ ही प्रथकार तथा टीकाकार विद्यानन्दको विव- भी होना स्वाभाविक है। मुस्तार मा० ने वादिराजसूरिके क्षित है और इस तरह सुख दुखकी वेदना उन्हीके स्वीकृत जिन दो श्लोकोक प्राधारसे अपना उक्त प्रतिपादन किया था की गई है, केवजीक नहीं। केवजीके सुख-दुःखकी वेदना वे दोनो श्लोक और उनका उक्त प्रतिपादन उस समय मेरे माननेपर उनके अनन्त सुख नहीं बन सकता, जिम स्वय लिये विशेष विचारणीय थे । एक तो वे दोनों श्लोक उक्त प्राप्तमामांसाकारने मी 'शर्म शाश्वतमवाप शङ्करः' शब्दों ग्रन्थमे व्यवधान महित हैं । दूसरे, कुछ विद्वान् उससे द्वारा स्वीकार किया है क्योंकि सजातीय व्याप्यवृत्ति दो विरुद्ध भी कुछ विचार रखते हैं । अतएव मैं उस समय गुण एक जगह नहीं रह सकते। यह मैं पहले भी कह चुका कुछ गहरे विचारकी श्रावश्यकता महसूस कर रहा था और है और जिसपर प्रो. मा. ने कोई ध्यान नहीं दिया है। इसलिये न तो मुख्तार साहबके उक कथनस सहमत ही
अब हम वादिराजसूरिके पार्श्वनाथ चरितगत उस उल्लेख हो सका और न अपहमत - तटस्थ रहा। चूंकि वहां मुझे को लेते हैं जिसक द्वारा मैंने यह कहा था कि-"रत्नकरण्ड वादिराजके जितने असंदिग्ध उल्लेखमे प्रयोजन था उतने वि. की ११ वी शताब्दी (१००२ वि.) से पूर्वकी रचना ही को उपस्थित किया, शेषको छोड़ दिया गया । इसके है और वह शताब्दियों पूर्व रची जा चुकी थी। तभी वह अतिरिक्त एक मच्चे विचारकका कोई अच्छा तरीका नहीं वादिराजके सामने इतनी अधिक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण १ 'स्वामिनश्चारतं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् । कृति समझी जाती रही कि प्रा. वादिराज स्वयं उसे देवागमेन मर्वजो येनाद्यापि प्रदीने ॥ १७ ॥ 'अक्षयसुखावह' बतलाते हैं और 'दिष्टः' कहकर उसे अागम त्यागी स एव योगीन्द्र येनाक्षय्यसुखावहम् । होने का संकेत करते हैं।" वादिराजके इसी उल्लेख (दो अर्थिने भव्यसार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः ॥” १६ ॥