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किरण ११-१२ ]
क्या रत्नकर एड श्रावकाचार स्वामी ममन्तभद्र की कृति नहीं है ?
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जाती है। केवलीमें यह दोनों ही प्रकारके बन्ध नहीं होते। व्याख्यान के आधारसे प्रस्तुत किये गये उपर्युक विवंचनको तब उनके वेदना कैसे हो सकती है? हां. केवलीके योगका भी जरूर प्रमाण मानेगे। मद्भाव रहनेमे प्रकृति और प्रदेश ये दो बन्ध अवश्य होते यहाँ हम एक बातका और उल्लेख कर देना चाहते हैं हैं, परन्तु उनका सुख-दुखकी वेदनाके साथ कोई सम्बन्ध और वह यह कि जब हमने प्रो. सा. के इस कथनको कि नही है। विद्यानन्दने तो 'तस्य (प्रकृतिप्रदेशबन्धस्य ) 'स्वय अष्टसहस्रीकारने भी यहाँ भीतरागो मुनिर्विद्वान्' से अभिमतेतरफलदावालमर्थस्वात" शब्दोंके द्वारा बहुत ही अपाय वीतरागत वज्ञानी (कवली) ही अर्थ ग्रहण किया स्पष्टताके साथ खुलासा कर दिया है। यही कारण है है। जैसा कि उनके टीका वायोस स्पष्ट है-स्वस्मिन् कि तीर्थकरके समवरण सम्बन्धी अपार बाह्य दुःख मुग्वस्य चाम्पत्ती श्रपि वीतरागस्य तम्बज्ञानवतातविभूति होते हुए भी उसम उन्हें कोई सुखका दभियन्धेरभावात् न पुण्यपापाभ्या योगस्तस्य तदभवेदन नही होता । इससे यह स्पष्ट है कि केवलीमे माता मन्धिानबन्धनवान दनि नयनकान्तमिद्धिरेवायात!। व असाताका स्थिति व अनुभागबन्ध न होनेम सुख और प्रात्ममुम्बदु ग्वाभ्या पापेरैकान्तकृतान्ने पुनरकपायस्यापि दुखकी वेदना नहीं होती। अत: 'वीतरागो मुनिविद्वान' ध्र रमेव बन्ध' स्यात -- इत्यादि । -- अष्टमहमी प्रमाणित शब्दीय विद्यानन्द के अभिप्रायानुसार उम मुनिका ग्रहण करने के लिये उसे बोल कर देखा और उसमे मिलान किया करना चाहिए जिसके कायक्लेशादि दुख और तत्वज्ञान तो मैं बहुत ही निराश हुश्रा और मुझे वहीं उनकी संतोषलक्षण सुग्व सभव है और वह माधु परमष्ठी ही है, दो बड़ी भूल दृष्टिगोचर हुई । एक तो उन्होंने 'श्राममुखकेवली नही, क्योंकि उनके न तो कायक्लेशादि संभव है दुःखाभ्यां आदि वाक्योकी, जो कल देवकी अष्टशतीके और न लोभका पर्यायरूप सन्तोप । यहां प्रो० साल की हैं, अष्ट महम्राकारके बतला दिये हैं। यदि इस भुत्त पर शंका है कि य द बीनरागो मुनिर्विद्वान्' शब्दमे केवल का कोई ध्यान न भी दिया जाय तो भी उनकी दुसरी भुल ग्रहण न हो, माधु परमेष्टी और उपाध्याय परमेष्ठीका ही उपेक्षणीय नही है। उपर जो उन्होंने अष्टपहनीकार के ग्रहण किया जाय तो उनके तो प्रमाद और कषाय रहनेसे नामसे पंक्तिया प्रमाणरूपमे प्रस्तुत की हैं वे अपहनीकार बन्ध होगा ही फिर कारिकामे जो बन्धका प्रसंग दिया गया का स्वमत नहीं हैं। अपहरोकारने उन्हें केवल शकाकार है उसकी संगति कैम बैठेगी ? इस शंकाका समाधान यह की ओरम प्रस्तुत की है। र्थात 'स्वस्मिन्' में लगा कर है कि पूर्वपक्षी प्रमाद और कपायको बन्धका कारण नही
'इनि' तकक वा शकाकार के हैं और उनके द्वारा उसने मानना चाहता वह तो केवल एकान्ततः द.खापत्तिको ही अपने पक्षगत दोषोका परिहार किया है और 'नयनकाम्न. बन्धकारण कहना चाहता है और उसके इस कथनमें ही
सिन्दिरवायाता' यह वाक्य समाधान-वाक्य है और यथाउपर्युक्त दोष दिये गये हैं। जब उसने अपने एकान्त पक्ष
थतः यही अष्टपहनीकारका म्वमत है। मालूम नहीं प्रा. को छोडकर यह कहा कि 'अभिसन्धि' (प्रमाद और कपाय) मा० ने पाठकों के सामने वस्तुस्थितिको अन्यथारूपमे क्यों भी उसमें कारण है तब उससे कहा गया कि यह नो रकवा ? जब कि अष्टपहीकारने कारिकांक नीचे अपना अनेकान्त सिद्धि प्रा गई-पापका 'परत्र सखद बोम्पादनं स्पष्ट व्याख्यान भी दे दिया था। और यदि उन्होंने यह पुण्यपापबन्धहेतुः' इत्यादि एकान्त नही रखा। इसमें यह जान बूझ कर नहीं किया तो 'म्वस्मिन' के पहले लगे हुए माफ है कि यहां छठे आदि गुणस्थानवर्ती मुनिकी ही
___ स्थान्मत' पदको क्यों छिपाया गया-3मे भी रद्भुत क्यों विवक्षा है। यह हम अन्धकार और विद्यानन्दके स्पष्ट- व्या नई किया ? जो कि वस्तुत: शकार्यका सूचक था। जोहो ख्यानसे भनी प्रकार समझ सकते हैं।
यह अवश्य है कि प्रो० मा० ने अष्टपहनीकारके नामय जो
उल्लिखित पंक्तियों उद्धत की है वे उनकी अपनी नहीं हैं। इस हमें यह प्रसन्नता है कि प्रो. सा. प्राचार्य विद्यानन्द लिये इन पंक्तियों परसे यह कहना कि 'स्वयं अष्टमहस्रीऔर उनके व्याख्यानको प्रमाण मानते हैं। इसलिये उनके कारने भी यहां 'वीतरागो मुनिविद्वान्' से अपाय वीतराग