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अनेकान्त
[वष ७.
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दुख यदि विशुद्धि और संक्लेशके कारण कार्य या तस्वभाव यह धापत्ति भी प्रदर्शित की है कि अज्ञानम बन्ध मानने
तो उनमें क्रमशः पुण्य और पापका बन्ध होना युक्त है पर कोई केवली ही नही हो सकता है, क्योंकि ज्ञेय और यदि वे विशुद्धि और संक्लेश के कारण आदि नहीं हैं अनन्त हैं । अतएव १५वे, १२व गुणस्थानमें वीतरागता होते तो उनसे बन्ध नही हो सकता।' यही इस प्रकाणका हुए भी अज्ञान के पहावये १३वों गुणस्थान (कैवल्यावस्था) संक्षिप्त मार है।
कदापिप्राप्त नहीं हो सकता । अकलदेव उस बन्धकारक अब पाठक ऊपर देखेंगे कि १३ वी कारिकामे जो अज्ञानको मोहरूप ही बतलाते हैं। श्राचार्य विद्यानन्दने 'वीनगगो मुनिविद्वान' शब्दका प्रयोग है वह एक पद भी मोहरहित अज्ञानसे यन्ध मानने पर यह आपत्ति नहीं है और न एक व्यकि उसका वाच्य है। किन्तु १२वी की है कि ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानोंमे भी शुद्ध कारिका श्राये हुए 'अचेतनाकषायों की तरह इसका अज्ञानके मद्भावये बन्धका प्रसंग आयेगा, जबकि सयोग प्रयोग है और उसके द्वारा 'वीतराग मुनि' तथा 'विद्वान् केवलीकी तरह वे दोनों गुणस्थान भी प्रबन्धक हैं। हां, मुनि' इन दो का बोध कराया गया है। प्राचार्य विद्यानन्द प्रकृति और प्रदेशवन्धकी अपेक्षा वहां बन्ध है किन्तु वह ने तो वीतरागो विद्वांश्च मुनिः' कहकर और 'च' शब्द योगनिमित्तक है, अज्ञान निमित्तक नहीं और यह सयोग का माथमें प्रयोग करके इस बातको बिल्कुल स्पष्ट कर केवलीमे भी है। अत: कषायविशिष्ट अज्ञान ही बन्धका दिया है। जान पड़ता है कि प्रो. सा. को कुछ भ्रान्ति कारण है, कपायहित अज्ञान नहीं । विद्यानन्द के इस हुई है और उनकी दृष्टि च' शब्दपर नही गई । इसीम कथन परसे और उनके द्वारा प्रयुक्त स्थित्यनुभागाख्यः उन्होंने बहुत बड़ी गलती खाई है और वे 'वीतराग विद्वान् शब्दपरसे एक और महत्वपूर्ण बात फलित होता है और मुनि' जैसा एक ही पद मानकर उसका 'कवली' अर्थ करने वह यह कि मयोगकेवली की तरह क्षीणकपाय और उप में प्रवृत्त हुए हैं। और शायद हसीम श्रापको यह कहनेका शान्तकषाय नामके ग्यारहवं और बारहवें गुणस्थानों में भी मौका मिला कि “यहा यदि सामान्य मुनिका ही ग्रहण स्थितिबंध और अनुभागबन्ध नही होते, जो कर्मसिद्धान्तकी किया जाय तो वीतराग और विद्वान् इन दो विशेषणोंका व्यवस्थाके मवथा अनुकूल है, क्योंकि कषायको ही उक्त प्रयोग सर्वथा निरर्थक होकर कारिकामें अपुष्टार्थ दोष दोनों बन्धोका कारण माना गया है। यथा-- उत्पन्न होता है।"
टिदि-अणुभागा कसायदो होति ।। प्रो. सा० ने एक और बड़ी सैद्धान्तिक भी भून की जब यह सैद्धान्तिक स्थिति है तब केवलीम बिना स्थिति है और वह यह कि प्राप्तमीमांसाकार और उनके टीकाकारो बन्ध और अनुभागवन्धके सुख और दुखकी वेरना किसी के आगे पीछेके कथनपर ध्यान न देकर अपने कथनके भी प्रकार सम्भव नहीं है। यथार्थतः संसारी ज.वोमे स्थिति समर्थनमें वे केवल अज्ञानको भी बन्धका कारण या मली- बन्ध और अनुभागबन्ध पूर्वक ही सुख-दुःखकी वंदना देखी पत्तिका जनक बतला गये हैं। जैसाकि श्रापक नम्न वाक्यो १ "अजानान्मादिनी बन्धी नाज्ञानाद् वीतमोहतः।"-श्रा०६८ से प्रकट है
"अशानाच्चेद् ध्रयो बन्धी ज्ञयानन्न्यान केवली।"-श्रा०६६ "ग्यारहवें और बारहवे गुणस्थानाम वीतरागता होते २ "मोहनीयकर्मप्रकृतिलक्षणादज्ञानाद्य तः कर्मबन्धः" । हुए भी अज्ञानके पदावरी कुछ मलोत्पत्तिकी प्राशङ्का हो ३ "क्षीणोपशान्तकायस्याप्यमानाबन्धप्रमक्त: । प्रकृतिसकती है।"
प्रदेशबन्धस्तस्याप्यस्तीति चेन्न, तस्याभिमतेतरफल दानापरन्तु सिद्धान्त में बिना मोहके प्रज्ञानको बन्धका कारणा समर्थत्वात् सयोग केवलिन्यपि संभवादविवादापनत्वात् । या मलोत्पत्तिका जनक नहीं माना है। स्वय प्राप्तमीमामा. न चागममात्रं, युक्तरपि मद्भावात् । तथा हि, विवादापन्न: कारने मोह-महित प्रज्ञानको ही बन्धका कारण प्रतिपादन पाणिनामष्टानिष्टाल दानममर्थपद्गल विशेषसम्बन्ध. किया है और मोह-रहित अज्ञानके बन्धकारणवका स्पष्टत कपायकार्थममवेताजाननिबन्धनस्तयावामध्यतरादारादि. निषेध किया है। इतना ही नहीं, बल्कि सबल ताके साथ सम्बन्धवत् ।"