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क्या रत्नकरण्ड-श्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है ?
(लेग्यक-न्यायाचार्य ५० दरबारीलाल जैन, कोठिया)
[द्वितीय लेख]
(गत किरण से आगे) अब हम प्रो.सा के द्वारा प्रस्तुत की गई प्राप्तमीमांसा जबकि केवल इन निमित्तोंमे बन्ध नहीं होता। इसी बात की ६३वी कारिकापर सूक्ष्म विचार करते हैं जिसके आधार को प्राचार्य विद्यानन्द निम्न : कारमे व्यक करते हैं:से वे यह कहते हैं कि वहाँ ग्रन्थकारको केवलीमें सुखदुःग्य "वम्मिन दावोत्पादनान पुण्यं सुग्वोपादनात्त की वेदना स्वीकार है। वह कारिका निम्न प्रकार है: -- पापमिति यदीयते तदा वीतरागो विद्वांश्च मुनिम्ताभ्यां पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःग्यात्यापं च मुखतो यदि । पुग यापाभ्यामात्मानं युञ्जानिमित्तसद्भावान , वीतगगवीतरागा मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां यूज्यानिमित्ततः ॥६३ स्य कायक्लेशादिम्प दुग्यत्वर्विदपस्तवमानसंतोष___इस कारिकापर विचार करने के पहले इसके पूर्वकी लक्षणसुग्वोत्पत्तेतन्निमित्तत्वात् ।” कारिकापर भी विचार कर लेना आवश्यक है जो इस जब पूर्वपक्ष नै उपयुक्त अपनी पुराय और पापकी प्रकार है:
व्यवस्थामें उत्तापक्षी (जैन) द्वारा प्रदर्शि। उक्त दोनों पापं ध्र परे दुःखात पुण्यं च सुग्वतो यदि । जगहके दोपों का परिहार करते हुए यह कहा कि अचेतन अचेतनाकपायौ च बध्येयातां निमित्ततः ।।२२।। कगट कादिक और कपायरहित जीवके तथा वीतरागमुनि ___यहां पुण्य और पापबन्धकी व्यवस्थाका प्रकरण है के मुख दुःखोम्पादनका-दुःख अथवा मुख पहुंचानेका
और यह दोनों कारिकाएँ अन्य कारने पूर्वपक्षके रूप में अभिप्राय (कपायांश) नहीं रहता इस लिये वे सुख-दुःख रस्तुत करके परमान्यतामें दोषोद्भावन दिखाया है। प्रश्न रूप निमित्ती मात्र से ही बन्धम युक्त नही हो सकते हैं यह है कि पुण्य और पापका बन्ध किस प्रकार होता है? क्योकि अभिप्राय बन्धका कारण है । तब उसके लिये यदि यह कहा जाय कि 'दूपरेम दु.ख उत्पन्न करनेसे निश्चय उत्तर दिया कि इस तरह तो अनेकान्त ही सिद्ध हुश्राही पापबन्ध और सुख उत्पन्न करने से पुरायबन्ध होता है पुण्य पापक बन्धका उक एकान्त न रहा। यही अष्टपहली तो अचेतन कण्टक, दूध भादि वस्तुएँ और कपायरहित कारके निम्न व्याख्यान प्रकट हैजीव भी पुण्य और पापसे बंधेगे, क्योकि वे दूसरोके मुख "नेपामभिसन्धरभावान्न बन्ध इति चेत्तहि न दुःखोत्पादनमे निमित्तकारण पड़ते हैं। यदि यह कहा परत्र सुग्वदःखोत्पादनं पुण्यपापबन्धहेतुरित्येकान्तः जाय कि दूसरोंमें नहीं, किन्तु 'अपने में दुःख पैदा करनेसे सम्भवति ।” (ER) पुण्यका और सुख उत्पन्न करनेसे पापका बन्ध होता है तो म्यान्मतं-स्वम्मिन दुःग्यस्य मुम्बस्य चोत्पत्ताबपि वातराग मुनि और विद्वान् मुनि भी बन्धको प्राप्त होंगे, वीतरागस्य तत्त्वज्ञानवतस्तदभिमन्धेरभावान्न पुण्यक्योंकि वे भी अपने में दुख और सुखके उत्पन्न करनेमें पापाभ्यां योगम्तम्य नदभिसन्धिनिबन्धनवान , इति निमित्तकारण होते हैं ।' वीतराग मुनि (तपस्वी साधु) तह्म नेकान्तमिद्धिरेवायाना।" (६३) तो अपने में कायक्लेशादि दुःख उत्पन्न करता है और इससे अगली दो कारिकाओं में से १४ नं. की कारिका विद्वान् मुनि (उपाध्याय परमेष्ठी) तत्वज्ञानजन्य सन्तोष- के द्वारा तो उभयकान्त और अवाच्यतैकान में दोप दिखाये लक्षण सुख पैदा करता है। ऐसी हालत में ये दोनों भी हैं और १५ न. की कारिकाके द्वारा मिद्धान्तमत स्थापित दुःख और सुखरूप निमित्तोंसे पुण्य तथा पापसे युक्त होंगे, किया गया है और कहा गया है कि 'स्वपरम्थ सुख अथवा