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अनेकान्त
[ वर्ष ७
लंकार पं. सत्यकेतु विद्यालंकार आदि अनेक विद्वान रन नागौर, ईडर श्रादि कई एक शास्त्र-भंडारों में बन्द कीडों इतिहासकारोंने समझा, और यथासम्भव उसका उपयोग का ग्रास बन रहे हैं। उपलब्ध ग्रन्थ भी सब ही अबतक भी किया ।
प्रकाशित नहीं होपाये। जो प्रकाशित भी हुए हैं उनमें किन्तु खेदका विषय है कि जैन अनुश्रतिका-जो कि थोडेसे ही ऐसे हैं कि जिनका जैनेतर विद्वरसमाज समुचित वैदिक अथवा हिन्दु अनुश्रुतिमे कम प्राचीन नही है. और उपयोग कर सके। बौद्ध अनुश्रतिसे अवश्य ही प्राचीन है और जो उक्त दोनों ऐसी स्थितिमें यदि भारतीय इतिहासके निर्माणमे जैन
नयाकी अपेक्षा अधिक प्रामाणिक, संगत, स्वतन्त्र दृष्टिको उपयक्त स्थान देना है. जोकि परमावश्यक है, तो ऐतिहामिक प्रमाणो तथा सामग्रियाम अनुमोदिन, विशुद्ध उसकी अनुश्रति तथा अन्य यत्र तत्र बिखरी हई ऐतिहासिक
नीय प्रनाति-जैमा उपयोग होना चाहिये था सामग्रीका एकत्रीकरण तथा वर्गीकरण करके उस विद्वत्समाज उसका शतांश भी नही होपाया। निस्पन्देह उसमे अधिक
एवं जनसाधारणके लिये सुलभ बनाना अत्यन्त श्रावदोष उक्त अनुश्रुतिकी संरक्षक जैन समाजका है, जिसने
श्यक है। तभी उनका सञ्चा मूल्य आंका जा सकता है, अपने ग्रन्थस्नोको ससारके सम्मुख सहज सुलभ और
उनका यथार्थ उपयोग किया जा सकता है और जैन संस्कृति सुबोधरूपमें न रक्खा। गत २००० वर्षों में जितना जैन
के साथ ही नहीं वरन् भारतके अतीत एवं इतिहास-विज्ञान साहित्य विविध भारतीय भषाओं में रचा गया उसके पूर्णांश समय का तो इस समय किसीको भी ज्ञान नहीं, जितनेका ज्ञान है उपका अल्पांश ही उपलब्ध है। अब भी अनेक ग्रन्थ- लखनऊ, ता०२०-६-१९४५
'प्रकाश-रेखा
इसमें कैसा भेद ?
गाते हो स्वदेशका गाना, भाता है ग्बद्दरका बाना । किन्तु ग़रीबोंको ठुकगना, यह क्या माया-वेद ?
इसमे कैमा भेद ? कलम जेवमे लगा 'पार्कर' चढे घूमते निजी कारपर । महक रहे हैं मैट लवैडर, इसका होता खेद !
इसमे कैसा भेद ?
दवा विदेशी खाते-पीते, धर्म-कर्म से होकर रीते! पशुताका बल लेकर जीते, पहिने वस्त्र सफेद !
इसमे कैसा भेद ?
हिन्दी-भाषाके हिमायती, किन्तु बोलते खुद विलायती ! क्या इसमे देखते उन्नती ? या जड़ रहे कुरेद ?
इसमें कैसा भेद ?
[स्व० 'भगवत्' जैन]