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किरण ११-१२]
जैन अनुश्रुतिका ऐतिहासिक महत्व
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सम्प्रदायोंकी अनुबनियोंपे हो तो उसे पूर्णतया विश्वसनीय अनश्रतियोके प्राचारपर ही किया जाय तो श्रापानीम मानना चाहिये । और यदि इस प्रकारका समर्थन न भी होजाय । मिले तो उक्त विषयमें जैन सिद्धान्त स्याद्वादका उपयोग जैन अनुश्रतिका अाधार जैसा कि ऊपर कहा जाचुका करना चाहिये-अर्थात यह भी सत्य हो सकता है, ऐसा है. अति प्राचीन प्राग तिहाम्पिक काल से चली आई तथा निर्णय देना चाहिये।"
उत्तर समयमें निरन्तर सर्दित होती गई परम्परा है। वह ___स्व. बैरिस्टर श्री के. पी. जायसवालने जोरके साथ
परम्परा भगवान महावीर द्वारा पुन. संगठित जैन श्रमण -- यह लिखा था कि “जैनोंके यहां कोई २५०० वर्षकी
मघमे उपाध्याय, उच्चारणाचार्य, वाचकाचार्य, पृच्छकाचार्य, संवत गणनाका हिसाब हिन्दुओं भरमें सबसे अच्छा है। उससे विदित होता है कि पुराने समयमे तिहापिक
इत्यादि अनेक वर्गके विद्वान श्रमणों द्वारा सुरक्षित रमवी परिपाटीकी वर्षगणना यहां थी। श्रीर जगह लुप्त और नष्ट
गई। उपाध्यायोंका कार्य पठन-पाठन होता था, वाचकाचार्यो होगई, केवल जैनामे बच रही। जैनोंकी गणनाके श्राधार
का कार्य अनुनि एवं सिद्धान्तका वाचन होता था,
उच्चारणाचार्य उचारणकी शुद्धता बनाये रखते थे, पर हमने पौराणिक और ऐतिहासिक बहुतसी घटनाओंको
पृच्छकाचार्य प्रश्नोत्नरों द्वारा विविक्षित विषयोको अस्पष्ट जो बुद्ध और महावीरके समयमे इधरकी हैं. समयबद्ध
अथवा विस्मृत न होने देते थे। ये जैन श्रमण गृहल्यागी, किया और देखा कि उनका ठीक मिलान जानी हुई गणना
अपरिगृही, निम्गृही, ज्ञान-ध्यान-तप-लीन परोपकारी साधु में मिल जाता है। कई एक ऐतिहासिक बानीका पता
होते थे। ईपी दंप पक्षपात आदिमे उन्हें कोई मौकार न जैनाकी ऐतिहाफिक लेख पट्टान्जियाम ही मिलता है। श्रादि।
था। धर्म साधन तथा धर्म-प्रचार ही उनका उद्देश्य था । एक अन्य अजैन विद्वान के शब्दोम-"जैन ग्रन्थोंक
श्रत. अमन्य, अमगत पक्षपातपूर्ण, अप्रामाणक बातोंक मङ्गलाचरण और प्रशस्तियों गतिहामिक दृष्टिम बड़े कामकी
प्रचारकी उनके द्वारा विशेष सम्भावना न थी। चीज है, इतिहास-प्रणेता अन्वेषके लिये ये कितने काम की हैं इस बातका सहजहीमे पता लग सकता है। बड़े
इमक अतिरिक, जैन श्रनु तिका लिपिबद्ध होना भी दु.खकी बात है कि भारतक इतिहास लेखकोंने पारसी,
हिन्दु अनुतिके साथ-साथ ही हुया, खासकर बाद अनु
श्रनिक लिम्वेबद्ध होने से काफी पहिले । इस प्रकार लिपिबद्ध अरबी श्रादि अन्यान्य सम्प्रदायक साहित्य एवं इतिहासका
होनेके समयकी अपेक्षा भी जैन अनुश्रति हिन्दु, बौद्ध, अनुशीलन करनेका कष्ट तो उठाया किन्तु भारतीय साहित्य
जैन-तीनों धाराग्राम पर्व प्राचीन ही ठहरती है। फिर तथा इतिहासके सर्वश्रेष्ठ माधन जो जैनग्रन्थ हैं उनकी ओर
बौद्ध अनुश्रनि भारतेतर प्रदेशामे विदेशियों द्वारा संकलित जरा भी ध्यान नही दिया।"
इस प्रकार जैन अनुश्रतिका मूल्य उन सभी पाश्चात्य हुई। वह म० बुद्ध पूर्व के काल के सम्बन्धमे प्राय मौन ही एवं पौर्वात्य विद्वानोने भले प्रकार मममा जिन्होंने उसका है। विदेशी प्रभाव उसमें स्पष्ट । हिन्दु अनुतिका किञ्चित भी अध्ययन किया है । वास्तवमें अनेक ऐतिहासिक
प्राधार प्राचीन वैदिक अनुश्रति था अवश्य, किन्तु वैदिक गुस्थियां जो आज तक उलझी पड़ी हैं वे जैन अनुश्रुतिके
धर्मके पौराणिक शैव, वैष्णव आदि विविध विभिन्न सदुपयोगसे श्रापानीसे मुलझाई जा सकती हैं। कितने ही
सम्प्रदायोंमें रूपान्तरित होजानेमे हिन्दु पौराणिक अनुश्रति ऐतिहाहिक भ्रमोंका उसकी सहायता निराकरण होसकता है। का सीधा एक रम सम्बन्ध प्राचीन वैदिक अनुभूतिय न रह सदाहरणके लिये, महावीर, बुद्ध, विक्रम, शक आदि संवतों मका। काल दोष और मम्प्रदाय भेदीक कारण उसमे अनेक के प्रचलनकाल-विषयक जो मतभेद और शङ्काएँ विद्वानों विचार तथा मत विरोध श्रागये । तथापि प्राचीन इतिहासक में चली प्रारही हैं उनका सबका समाधान यदि देवल जैन लिये उमका उचित मूल्य मि. पाटिर, डा. जायसवाल,
प्रो. भण्डारकर, डा. राम चौधरी, प० जयचन्द्र विद्या १ जनसाहित्य संशोधक म्ब० १ ० ४-२११ २ जेनमिद्वान्त भास्कर भा०२ पृष्ठ १०५
३ भगवान महावीर श्रीर उनका ममय -जुगलकिशोर मुख्तार