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अनेकान्त
नहीं होने दिया और जैन तयज्ञान, जैनदर्शन तथा जैन श्राचारशास्त्रकी भाति प्राचीन भारतीय इतिहासको भी 'नामावली निबद्ध गाथाओं तथा कथासूत्रीक रूपमे सुरक्षित रक्खा। वे महावीरकालीन तथा उनके पश्चातकी घटनावलि तथा इतिहास और विशिष्ट व्यक्ति जीवनच स्त्रोको भी उन्ही में निबद्ध करते गये । श्रन्तमें, सन् ईस्वीपूर्व १ ली अन्य जैन धार्मिक विषयोंकी भांति जैन प्राचीन अनुश्रुति भी लिपिबद्ध होने लगी
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वर्तमान मे ज्ञात अथवा उपलब्ध साहित्य की दृष्टिसे ही सन् २ ईस्वी [वि० [सं०] ६० ) में आचार्य ने ( प्राकृत 'पउमचरित' ग्रन्थको उक्त नामावलि निगाथा तथा कथासूत्रों के श्राधार पर रचना की । ३ री शताब्दी के लगभग शिवकोटेश्राचायने अपने 'भगवती श्राराधना' ग्रन्थ में पचाम अनुश्रुतियोंका उल्लेख किया है। रवी शता की 'तिलोयपत्ति' में भगवान महावीरके पश्चात्की श्राचार्य परम्परा तथा एक हजार वर्ष पर्यन्तकी राज्यवंशावलि मिलती है । ६ठी शताब्दी परम्परागत कल्पसूत्रादि श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ मी लिपिबद्ध किये जाने लगे। इनमे प्राचीन महावीरकालीन तथा पछिकी भी अनुधुतिय सुरक्षित है यद्यपि कही कही विकृत रूपमें ० वी शताब्दि रविषेयाचार्यने पद्मचरित्र, जटामिन ने परागपरित्र महाकवि जय ने सिधान महाकाव्यकी रचनाएँ की । ८ वी शताब्दीमे श्रा० हरिषेणने प्रसिद्ध कथाकोप, प्रा० जिनसेनने श्रादिपुराण, पार्श्वभ्युदय आदि ग्रन्थ रचे । ६ वी शताब्दीमे श्र० गुणभद्रने उत्तरपुराण, जिनसेन द्वि० ने हरिवंशपुराण महाकवि पुष्पदन्त ने अप भ्रंश महापुराण, हायकुमार चरिउ, जसहर चरिउ श्रादि रचनाएँ की
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रूपमें प्राचीन तथा शुद्ध भारतीय अनुश्रुति देशक कोने-कोने से सहस्र धाराश्रमं निरन्तर प्रवाहित होती रही तथा सुरक्षित बनी रही।
इसके अतिरिक्त जैन विद्वानोंने बहु संख्यक शिलालेखों, बेणाभिखी प्रतिमालेखों, मुद्रालेख, ताम्रपत्रो ज्ञ पत्रो, प्रन्थप्रशस्तियों, पुष्पिकाओं, पट्टावलियों, गच्छावलियों, गुर्वावलियों, राजवंशावलियाँ अन्यदाताओं, प्रतिलिपिकारों, तत्कालीन राज्याधिकारियों सम्बन्धी सूचनाओं तथा 'मूलनेणसीकी ख्यात' जैसे स्वतन्त्र ऐतिहासिक ग्रन्थोंके रूपमें विपुल ऐतिहासिक सामग्री अन्य भारतीय समाजकी अपेक्षा कहीं अधिक निष्पक्ष, स्पष्ट निति कालक्रमानुसार और प्रमाणीक उसे हमें प्रदान की है। उनमें प्रस प्रदेश राज्यो नगरी, स्थानविशेषोंके निर्देश भौगोलिक- इतिहास की ऐसे अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
इसके उपरान्त उपर्युक्त तथा अन्य प्राचीन ग्रन्थो श्रनुश्रुतियों (Traditions) श्रादिके आधारपर सैकड़ो पुराण, चरित्र, कथाग्रन्थ, गद्यपद्य काव्य, चम्पू, रासा श्रादिके रूप में प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नडी, हिन्दी, गुजराती, मराठी श्रादि विविध भाषाश्रमे रचे जाते रहे हैं। सुदूर दक्षिणकी तामिल, तेलगु भाषाथों में भी ईस्वीसन्के प्रारम्भसमय से ही अनेक प्रसिद्ध एवं विशाल उच्चकोटिके जैन काव्यकथाग्रन्थ मिलते हैं। इस प्रकार जैन अनुश्रुति के
प्राचीन भारतीय पुरातत्व जैन अनुश्रुतिका पूर्णतया समर्थन करता है। डा० भगवानलाल इन्द्र, मि० लुइस राइस, प्रो० वृल्ड इत्यादि विद्वानोने उडीसा, मधुरा तथा मैसूरप्रान्तस्य जैन पुरागाय के सम्बन्धमें बहुत कुछ लिखा है। उनका मत है कि इन प्रान्तों पाये जाने वाले प्राचीन जैन शिलालेख जैनोकी प्राचीन अनुश्रुतिका अांधकाश में समर्थन करते हैं और सिद्ध करते हैं कि ईस्वी मेनु पूर्वकी शतादि जैनसमाज भारतवर्षके दूरम्य प्रदेशों तक फैला हुआ एक सम्पन्न और प्रमुख समाज था । जैन ग्रन्थों में उलिखित बातोकी सचाईका भारी समर्थन श्रभी हाल में ही प्रकाशित बीदनिकाय ग्रन्थोंसे भी होता है जो पर्याप्त प्राचीन है'।
प्रो० अपने "जैन अतिकी प्रामाणिकता नामक लेखमें अपना तथा डा० जैकोबीका मत इस विषय में उल्लेख करते हैं और सिद्ध करते हैं कि जैन अनुमतिकी सत्यतामें कोई सन्देह नहीं। उनका कहना है कि जैन अनुश्रुति ही क्यों विशेष कड़ी परीक्षा तथा श्रसाधारण श्रालोचनाकी पात्र बनाई जाय, यदि उसका समर्थन अन्य स्वतन्त्र श्राधारोंमें, ऐतिहासिक विवरणों तथा अन्य : Encyclo Brit, Vol. XXIX p. 661-662 २On the Authenticity of Jaina Tradetion-by Buhler, p. 180.
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