________________
किरण ११-१२]
जैन अनुतिका ऐतिहासिक महत्व
१७७
सम्राट' थे। प्राचीन यूनानी लेखकाने भारतीय तत्कालीन 'वाद' का नृतीय भेद 'प्रथमानुयोग' था। यह अनुयोग अनुश्रतिके श्राधारपर जिन भारतीय डायोनिसियस तथा मूलमे ५००० पद प्रमाण था। इसमे बारह प्रतीत जिनउनके पुत्र हरकुलीजका वर्णन किया है वह उन्हीं पितापुत्र वंशी तथा प्रमुख राजवंशीका संक्षिप्त वर्णन था। साथ ही अपभदेव तथा भरतचकवर्तीका ही विकृत वर्णन प्रतीत तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र आदि मठ प्राचीन होता है।
महापुस्पीक जीवन चरित्र प्रादि तथा अन्य भी मोक्षमार्गमे भगवान ऋषभदेवने ही मन प्रथम सामाजिक व्यवस्था
प्रयत्नशील अनेक विशिष्ट स्त्री-पुरुषोंके कथानक थे। तीर्थकर स्थापित की, सभ्यताका प्रचार किया, धर्मका उपदेश दिया
धर्मप्रतिक होने के कारण प्रथमपुरुष' (पुरुषश्रेष्ठ) होते हैं, और अपनेस पूर्व भांगभूमिकी अवस्थाका वर्णन किया ।
उनके पम्यक्त्वप्राप्ति लक्षण पूर्वभव अादिकका वर्णन उनके पश्चात् समय ममयपर होने वाले अन्य जैन तीर्थकर
करनेवाला होनेमे, जिनवाण का यह अङ्ग प्रथमानुयोग अपने पूर्वकी अनुश्रत-घटनालिका पुनरुद्धार और प्रचार
कहलाया । दुमरे, जैनाचार्य भारी मनोविज्ञानवेत्ता होने थे। करते रहे और वह परम्परागत धारणाद्वारसं प्रवाहित होता
वे जानते थे कि अधिकाश मानवसमाज अल्पबुद्धि होता रही। ब्राह्मी लिपिके प्रचलनके प्रमाण प्राचीन युगके प्रारभ
है. और इमी कारण कथाप्रिय भी। एक तो अपने पूर्वजों से ही मिलते हैं। किन्तु पूर्वजोको अपनी धारणाशनि और
की स्मृतिको, उनके इतिवृनको स्थायी सम्बनेकी प्रवृत्ति मस्तिष्क-बलपर इतना भरोया था कि उन्होंने अपना
मनुप्यम स्वभावत. होता है । दृपर, वह गृन धार्मिक
सिद्धान्तो, नापज्ञान एवं शुष्कचारित्र नियमोंकी इतनी मच धार्मिक अनुश्रुतिको तब तक लिपिबदन करना श्रावश्यक नहीं समझा जब तक कि उन्हे विकृत अथवा विस्मृत हा
और शीघ्रता साथ हृदयङ्गत नहीं कर पाता जितनी कि जानेका भय नही हुआ।
अपने पूर्वमे हुए महापुरुषोक जीवन-वृत्तान्ती तथा पुण्य
पाप फलमयी दृष्टान्तीकी । इन कथानकोको पर्व ही जनजैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, प्रत्येक जैनतीर्थकरके
माधारण-श्राबालवृद्ध स्त्री गुरुप-बड़े चाव पढते और उपदेश में अतीतकी ऐतिहासिक अनुश्रुतिका कथन अनि
सुनने हैं, प्रभावित होते हैं तथा पापसे भय और पुण्यमे वार्यरूपसे रहता था। ऐतिहासिक कालके भीतर ही महा
प्रीति करना सीग्वने हैं। यह जानकारी और विश्वास होने से भारत कालीन २२ व जैनतीधंकर अरिष्टनेमिने अपनेस
कि उक्त. कथानक सच्चे और ऐतिहासिक है, उनका प्रभाव पूर्वका अनुश्रुत ( traditional ) घटनाबलिका पुनरुद्धार
विशेष होता है । वैमा एक कपोलकल्पित समझा जानेवाली किया। उनके पश्चात् सन् ई. पू. ८४६-७७७ तक
कहानी-उपन्यापादिका नही हाता । इसी मनोवैज्ञानिक २३ व जैनतीर्थकर भगवान पार्श्वनाथने उसका प्रचार किया
तत्वको दृष्टिमें रखते हुए जैनाचार्योन 'प्रगम' का अर्थ और अन्तम सन् ५५७-५२७ ई. पू. तक अन्तिम तीर्थ
प्रव्युत्पन्न मिथ्यादृष्टि' भी किया कारण कि इस कोटिमें कर भगवान महावीरने अपने धार्मिक उपदेशके साथ माथ
अधिकाश जनमाधारण परिगाणा हो जाते है। ऐसे श्रा'मउस समय तक पूर्व इतिहासका भी यथावत वर्णन किया।
संवेदन रहित, धर्ममार्गपर न प्रारूढ़ हुए उन मामान्यबुद्ध भगवान महावीरके पश्चात भद्रबाहु श्रतकंवली एवं उनके
मनुष्योंके लिये जो माहित्यका अन, जातीय अनुश्रनिके शिप्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्यक समय तक भगवान-द्वारा
आधार पर जैनाचार्योने सुरक्षित रखा उसे उन्होंने उपदेशित श्रतज्ञान ज्योंका न्यों चलता रहा।
'प्रथमानुयोग' नाम दिया। भगवान महावीरके प्रधान शिष्य गौतमादि गणपरोंने भगवानके उपदेशको द्वादशाङ्गश्रुतके रूपमे वर्गीकरण करके
___ भद्रबाहु श्रन केवल के पश्चन उम महाविपुल श्रृतज्ञान उसका सकलन किया था । द्वादशाङ्गके बारहवें अक्ष
का धीरे धीरे हाम होने लगा, किन्तु जैनाचार्योन उसके
प्रयोजनभूत तथा उपयोगा अशोको लुप्त अथवा विस्मृत १ भारतीय इतिहासकी रूपरेखा पृ०१४६, भारतका प्रथमसम्राट २ Mc. Crindle's Ancient India. ३ 'मोक्षमार्गप्रकाश'-५० टोडरमल्ल जी ।