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अनेकान्त
[वर्ष ७
अलावा अभ्युदयसुख अथवा लौकिक सुखसमृद्धि (उत्कर्षका) चारित्त आ ही जाता है। चूंकि वह सम्यक्चारित्र और भी बहुत कुछ कीर्तन किया गया है।
सम्यक्चारित्र सम्यग्ज्ञानके बिना नहीं होता और सम्यग्ज्ञान अब एक प्रश्न यहां पर और रह जाता है और वह यह सम्यकदर्शनके बिना नहीं बनता, अत: सम्यक् चारित्र कहने से कि धर्मके अधिनायकोंने तो वस्नुस्वभाव' को धर्म कहा है, सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानका भी साथमें ग्रहण हो जाता चारित्र' को धर्म कहा है, अहिंसाको परमधर्म तथा दयाको है। स्वयं प्रवचनसारमें उमसे पूर्वकी गाथामें श्रीकुन्दकुन्दाधर्मका मूल बतलाया है और उत्तम क्षमादि दश लक्षण चायने 'जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो' इस धर्मका खाम तौरसे प्रतिपादन किया है, तब अकेले रत्नत्रय वाक्यके द्वारा चारित्रका दर्शन-ज्ञान-प्रधान विशेषण देकर को ही यहां धर्मरूपमें क्यों ग्रहण किया गया है?-क्या उसे और भी स्पष्ट कर दिया है। अहिंसा चारित्रका प्रधान दूसरे धर्म नही हैं अथवा उनमें और इनमें कोई बहुत बड़ा अंग होने मे परमधर्म कहलाता है 'दया उमीकी सुगंध है। अन्तर है , इमके उत्तरमे मैं सिर्फ इतना ही कह देना दोनोंमें एक निवृत्तिरूप है तो दूसरा प्रवृत्तिरूप है। इसी चाहता है कि धर्म तो वास्तवमे 'वस्तुस्वभाव' का ही नाम तरह दशलक्षणधर्मका भी रत्नत्र पधर्ममें ममावेश है। और है, परन्तु दृष्टि, शैली और आवश्यकतादिके भेदमे उसके इसके प्रबल प्रमाणके लिये इतना ही कह देना काफी है कि कथनमें अन्तर पर जाता है। कोई संक्षेपप्रिय शिष्यों को जिन श्री उमास्वाति प्राचार्यने तत्वार्थसूत्रके पूर्वोद्धृत प्रथम लक्ष्य करके संक्षिप्त रूपमें कहा जाता है, तो कोई विस्तार सूत्र में सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्रको 'मोक्षमार्ग' बतलाया है प्रिय शिष्यों को लक्ष्यमें रखकर विस्तृत रूपमें। किसीको उन्हीने इस सूत्रके विषयका स्पष्टीकरण करते हुए संवरके धर्मके एक अगको कहने की जरूरत होती है, तो किपीको अधिकारमें दशलक्षण धर्मके सूत्रको रक्खा है, जिसमे स्पष्ट अनेक अंगों अथवा सर्वाङ्गोंकी। कोई बात सामान्यरूपसे है कि ये सब धर्म सम्यग्दर्शनादिरूप रग्नत्रय धर्मके ही कही जाती है, तो कोई विशेषरूपसे । और किमीको पूर्णतः विकसित अथवा विस्तृत रूप हैं। ऐसी हालतमे श्रापत्तिके एक स्थानपर कह दिया जाता है, तो किसीको प्रशों में विभा- लिये कोई स्थान नही रहता और धर्मका यह प्रस्तुतरूप जित करके अनेक स्थानोंपर रखा जाता है। इस तरह बहुत ही सुव्यवस्थित, मार्मिक एवं लचयके अनुरूप जान वस्तुके निर्देश में विभिन्नता भाजाती है. जिसके लिये उसकी पड़ता है। अस्तु । दृष्टि श्रादिको समझनेकी जरूरत होती है और तभी वह अब आगे धर्मके प्रथम अंग सम्यग्दर्शनका लक्षण ठीक रूपमें समझी जा सकती है। धर्मका 'वस्तुस्वभाव' प्रतिपादन करते हुए प्राचार्य महोदय लिखते हैंबक्षण वस्तुमात्रको लक्ष्य करके कहा गया है और उसमें
सम्यग्दर्शन-लक्षण जर तथा चेतन सभी पदार्थ प्राजाते हैं और वह धर्मके श्रद्धानं परमार्थानामाताऽऽगमतपोभृताम् । पूर्ण निर्देशका अतिसंक्षिप्त रूप है। इस प्रथमें जडपदार्थों त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ का धर्मकथन विवक्षित नहीं है बल्कि 'सत्वान्' पदके वाच्य 'परमार्थ प्राप्तो, परमार्थ आगमों और परमार्थ जीवात्माओं का स्वभाव धर्म विवक्षित है और वह न.प्रति तपस्वियोंका जो अष्ट अङ्ग सहित, तीन मूढता-रहित संक्षेप न-प्रति विस्तारसे सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्ररूप है। तथा मद-विहीन श्रद्धान है उस सम्यग्दर्शन कहते हैं।इसके सम्यक्चारित्र अंगमें 'चारित्तं खलु धम्मो' का वाच्य अर्थात यह सब गुण-समूह सम्यग्दर्शनका लक्षण है१ धम्मो वत्थुमहायो।
अभिव्यङ्गक है-अथवा यों कहिये कि प्रारमा सम्यग्दर्शन २ चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो मो समो ति णिहिटो ।
धर्मके प्रादुर्भावका संयोतक है।' मोदकवोद यहणो परिणामो अपणो हु मम ॥ ७॥ व्याख्या-यहाँ 'श्रद्धान' से अभिप्राय श्रद्धा, रुचि,
-प्रवचनसार प्रतीति, प्रत्यय (विश्वास), निश्चय, अनुराग, सादर मान्यता, ३ उत्तमक्षमा-मार्दवार्जव-सत्य-शौच-संयम-तपस्त्यागाकिञ्च- गुणप्रति, प्रतिप्रीति (सेवा, सस्कार) और भक्ति जैसे शब्दों के न्य-प्रहाचर्याणिधर्मः ।
-तत्त्वार्थसूत्र १ सारा तत्त्वार्थसूत्र वास्तवम इसी एक सूत्र यष्टीकरण है।