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किरण ११-१२ ]
समीचीन-धर्मशास्त्र और उसका हिन्दी भाष्य
यही सम्यग्दर्शनादिरूप वह धर्म है जिसे ग्रन्थकी ग्दर्शनादि रत्नत्रय होते हैं तो उन्हें व्यवहारतः उक्त पुण्य द्वितीय कारिकामें 'कर्मनिवर्हण' बतलाया और जो स्वय. प्रकृतियोंका बन्धक कहा जाता है, और इस जिये यह म्भूस्तोत्रकी कारिका ८४ के अनुसार वह सातिशय अग्नि शुभोपयोगका ही अपराध है-शुद्धोपयोगकी दशामें ऐसा है जिसके द्वारा कर्म-प्रकृतियोंको भस्म करके उनका मामा नहीं होता। अन्यथा, रत्नत्रयधर्म वास्तव में मोच (निर्वाण) से सम्बन्ध विच्छेद करते दुप प्रारमशक्तियोंको विकसित काही हेतु है, अन्य किसी कर्मप्रकृतिके बन्धका नही; जैसा किया जाता है। और इस लिये जिसके विषय में उक्त कि आगम-रहस्यको लिये हुए श्री अमृतचन्द्राचार्य के निम्नकारिकाकी व्याख्याके समय यह बतलाया जा चुका है कि वाक्यामे प्रकट हैवह वस्तुत: कर्मबन्धका कारण नहीं, जो ठीक ही है, क्यों "सम्यक्त्व-चारित्राभ्यां तीर्थकराहारकर्मणो बन्धः । कि चार प्रकारके बन्धोमेसे प्रकृतिबन्ध तथा प्रदेशबन्ध योऽप्युपदिष्टः समये न नयविदां सोऽपि दोपाय ।। योगसे और स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं, सति सम्यक्त्चरित्रे तीर्थकराहारबन्धको भवतः। सम्यग्दर्शनादिक न योगरूप हैं और न कषायरूप है तब योग-कपायौ नाऽसति तत्पुनम्मिन्नदासीनम् ।। इनसे बन्ध कैसे हो सकता है ? इस पर यह शंका की जा ननु कथमेवं सिद्धयतु देवायुप्रभृतिसत्प्रकृतिबन्धः। सकती है कि आगममें सम्यग्दर्शनादि (रग्नत्रय) को तीर्थ. सकलजनसुप्रसिद्धो रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणाम ।। कर, श्राहारक तथा देवायु श्रादि पुण्यप्रकृतियों का जो रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणम्यैव भवति नान्यस्य । बन्धक बतलाया है उसकी संगति फिर कैसे बैठेगी? इस आस्रवति यत्त पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः ॥ के उत्तर में इतना ही जान लेना चाहिये कि वह सब कथन एकस्मिन्समवायादत्यन्तविरुद्ध कार्य योरपि हि। नयविविक्षाको जिये हुए है, सम्यग्दर्शनादिके साथमें जब इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारमाहशोऽपि ढमितः॥ रागपरिणतिरूप योग और कषाय नगे रहते हैं तो उनसे
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय उक्त कर्मप्रकृतियोका बन्ध होता है और संयोगावस्थामें दो यहां पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूं कि वस्तुओंके दो अत्यन्त विरुद्ध कार्य होते हुए भी व्यवहारमें इस रत्नत्रयधर्मके मुख्य और उपचार अथवा निश्चय श्रीर एक कार्यको दूसरेका कार्य कह दिया जाता है, जैसे घीने व्यवहार ऐसे दो भेद हैं, जिनमें व्यवहारधर्म निश्चयका जला दिया-जलानेका काम अग्निका है घीका नहीं, परन्तु सहायक और परम्परा मोक्षका कारण है. जबकि निश्चय दोनोंका संयोग होनेमे अग्निका कार्य घीके साथ रूढ होगया। धर्म साचात मोज्ञका हेतु है। और इनकी भावना दो इसी तरह रागपरिणतिरूप शुभोपयोगके साथमें जब सम्य- प्रकार होता है-एक समरूपमें और दूसरी विकलारूप
में। विकलरूप पाराधना प्रायः गृहस्थोंके द्वारा बनती है १ 'हुत्वा स्वकर्म-कटुकप्रकृतीश्चतस्रो,
और सकलरूप मुनियोंके द्वारा विकलरूपये (एकदेश अथवा रत्नत्रयाऽतिशयतेजसि जातवीर्यः ।
श्रांशिक) रत्नत्रयकी भाराधना करने वालेके जो शुभराग बभ्राजिषे सकल वेदविर्धर्विनेता,
जन्म पुण्यकर्मका बन्ध होता है वह मोक्षकी साधना सहान्यभ्रे यथा वियति दीप्तचिर्विवस्वान् ।
यक होनेसे मोक्षोपायके रूपमें ही परिगणित है, बन्धनो २ जोगा पांड-पदेमा ठिदि-अणुभागा कमायदो होति ।।
पायके रूपमें नहीं। इसीसे इस ग्रंथमें, जो मुग्यतया
गृहस्थोंको और उनके अधिक उपयुक्त व्यवहार सनत्रयको ३ योगात्यदेशबन्ध: स्थितिबन्धो भवति यः कषायात्तु ।
बचय करके लिखा गया है, समीचीन धर्म और उसके दर्शन-बोध-चरित्रं न योगरूपं कपायरूपं च ॥२१॥
अंगोपाडोका फसवर्णन करते हुए उसमें नि:श्रेयम सुम्बके दर्शनमात्मविनिश्चितिगत्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । ४ असमयं भावयतो रत्नत्रयस्ति कर्मबन्धो यः । स्थितिगत्मनि चारित्रं कुन एतेभ्यो भवति बन्धः ।।२१६।। सविपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ॥२११|| -पुरुपार्थमिद्ध्युपाय
-पुरुषार्थमित्युगय
सावर