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अनेकान्त
[ वर्ष ७
'दृष्टि' को दर्शन तथा श्रद्धान, 'ज्ञान' को बोध तथा से स्पष्ट ध्वनित है। और इन्हें जब 'भवपति' बतलाकर विद्या और वृत्त' को चारित्र, चरण तथा क्रिया नामोंसे भी संसारके मार्ग-संसारपरिभ्रमण के कारण अथवा सांसा. इसी ग्रन्थमें उल्लेखित किया गया है। इसी तरह 'सद्- रिक दुःखोंके हेतुभूत-निर्दिष्ट किया गया है तब यह स्पष्ट तृष्टि'को सम्यग्दर्शनके अतिरिक्त सम्यक्त्व तथा निर्मोह और है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र ये तीनों 'सतज्ञान' को 'तथामति' नाम भी दिया गया है । साथ मिले हुए ही 'मोक्षपद्धति' अर्थात् मोक्षका एक मार्ग हैंही अपनी स्तुतिविद्या (जिनशतक) में ग्रन्थकार महोदयने संसारदुःखोंसे छूटकर उत्तम सुखको पानेके उपायस्वरूप सद्दष्टि के लिये 'सुश्रद्धा' शब्दका तथा स्वयम्भूस्तोत्रमें हैं; क्योकि 'मोक्ष' 'भव' का विपरीत (प्रत्यनीक) है, और सद्वृत्तके लिये 'उपेक्षा' शब्दका भी प्रयोग किया है और यह बात स्वयं ग्रंथकार महोदयने ग्रन्थकी 'अशरणमशुइस लिये अपने अपने वर्गानुसार एक ही अर्थक वाचक भनित्यं' इत्यादि कारिका (१०५) मे भवका स्वरूप बतप्रत्येक वर्गहन शब्दों को समझना चाहिये।
जाते हुए 'मोक्षस्तविपरीतात्मा' इन शब्दोंके द्वारा व्यक्त ___यहां सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको की है । इसीसे तत्त्वार्थसूत्रकी आदिमें श्रीउमास्वाति जो 'धर्म' कहा गया है वह जीवात्माके धर्मका त्रिकाला- प्राचायने भी कहा हैबाधित सामान्य लक्षण अथवा उसका मूलस्वरूप है। इसी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ १॥ को रत्नत्रय' धर्म भी कहते हैं जिसका उल्लेख स्वयं स्वामी
और यही बात श्रीभाचन्द्राचार्यने अपने तत्त्वार्थसूत्र समन्तभदने कारिका नं०१३ में 'रत्नत्रयपवित्रिते' पदके में 'सदृष्टिज्ञानवृत्तात्मा मोक्षमार्गः सनातनः' तथा द्वारा किया है और स्वयम्भूस्तोत्रकी कारिका ८४ में भी 'सम्यग्दर्शनावगमवृत्तानि मोक्षहेतुः' इन मंगल तथा 'रत्नत्रयातिशयतेजसि' पदके द्वारा जिसका उल्लेख है। सूत्रवाश्योंके द्वारा प्रतिपादित की है। इमी रत्नत्रयरूप ये ही वे तीन रत्न हैं जिनके स्वरूप-प्रतिपादनकी दृष्टिसे धर्मको स्वामी समन्तभदने प्रस्तुत ग्रंथमे 'मोक्षमार्ग' के आधारभूत अथवा रक्षणोपायभूत होने के कारण इस अतिरिक्त सन्मार्ग' तथा शुद्धमार्ग' भी लिखा है, और अन्धको 'रत्नकरण्ड' (नोंका पिटारा) नाम दिया गया जान शुद्धसुखात्मक मोक्षको शिव, निर्वाण तथा निःश्रेयस नाम पड़ता है। अस्तु, धर्मका यह लक्षण धर्माधिकारी प्राप्त- देकर शिवमाग' निवोणमार्ग' 'निःश्रेयसमाग' भी इसीके पुरुषों (तीथंकरादिकों) के द्वारा प्रतिपादित हुआ है, इससे
नामान्तर है ऐसा सूचित किया है । साथ ही 'ब्रह्मपथ' भी स्पर कि वह प्राचीन है, और इस तरह स्वामीजीने उस इपीका नाम है, ऐसा स्वामीजीके युक्त्यनुशासनकी ४ थी के विषयमं अपने कतृत्वका निषेध किया है।
कारिकामे प्रयुक्त हुए 'ब्रह्मस्थस्य नेता' पदोंमे जाना जाता ___ जब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्रको
है, जो उमास्वामीके 'माक्षमार्गस्य नेतार' पदोंका स्मरण 'धर्म' कहा गया है तब यह स्पष्ट है कि मिथ्यादर्शन,
कराते हैं। यही संक्षेपमें जिनशासन है जैनमार्ग है. अथवा मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र 'धर्म' हैं.- पापके मूल- वास्ता
___ वास्तविक सुखमार्ग है, और इस लिये मिथ्यादर्शनादिकको रूपनलिये
प्रायोति कुमार्ग, मिथ्यामार्ग कापथ तथा दुःखमार्ग समझना चाहिये। गया है और पापको 'किल्विप' नामके द्वारा भी उल्लेखित ग्रन्थकी १४
ग्रन्थकी १४ वीं कारिकामें इसके लिये 'कापथ' शब्दका किया है, जैसा कि कारिका नं० २७, २६, ४६. १५८ धादि
स्पष्ट प्रयोग है और उसे 'दुःखानां पथि' लिखकर 'दुःख
मार्ग' भी बतलाया गया है। हवीं कारिकामें भी कापथ१ देखो, कारिका नं० ४, २१, ३१ श्रादि, ३२, ४३, ४६ श्रादि; ४६, ५०, १४६ श्रादि ।
घट्टनं' पदके द्वारा इसी कुमार्गका निर्देश और पागममें २ देखो, कारिका ३२, ३४; ४४।।
उसके खण्डन-विधानका प्ररूपण है। ३ 'सुश्रद्धा मम ते मते' इत्यादि पद्य नं. ११४
५ देखो, कारिका ११, १५, ३१, ३३, ४१, १३१ । ४ मोहरूपो रिपुः पाप: कपायभटसाधनः ।
२ 'जिनशासन' नामसे इसमार्गका उल्लेख प्रन्थकी कारिका दृष्टि संविदुपेक्षास्त्रस्त्वया धीर ! पराजितः ॥ १० ॥ १८ तथा ७८ में आया है।