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समीचन-धर्मशास्त्र और उसका हिन्दी भाष्य
[ सम्पादकीय ]
(गत किरणसे आगे)
अब रही 'समीचीन' विशेषणकी बात । धर्मको प्राचीन उपदेश दिया गया। उमपरसे भी फलित होता है। दोनों या अर्वाचीन आदि न बतलाकर जो समीचीन विशेषणसे में 'समीचीनधर्मशास्त्र' यह नाम प्रतिज्ञाके अधिक अनुरूप विभूषित किया गया है उसमें खास रहस्य संनिहित है। स्पष्ट और गौरवपूर्ण प्रतीत होता है। समन्तभद्रके और भी
[इस विशेषणकी व्याख्याको बहु वक्तव्यात्मक होनेसे कई ग्रंथोंके दो दो नाम हैं, जैसे देवागमका दूसरा नाम यहां छोडा जाता है, पाठक उसे कुछ महीनों के बाद प्रका. आप्तमीमांसा, स्तुति-विद्याका दूसरा नाम जिनस्तुतिशतक शित होने वाले सभाष्य ग्रन्थमें ही देखनेकी कृपा करें। (जिनशतक ) और स्वयम्भूस्तोत्रका दूसरा नाम समन्तभद्र
एकमात्र धर्म-देशना अथवा धर्म-शासनको लिये हुए स्तोत्र है, और ये सब प्रायः अपने अपने आदि-अन्तके होनेसे यह ग्रंथ 'धर्मशास्त्र' पदके योग्य है। और चूँकि पद्योंकी दृष्टिको खिये हुए हैं। अस्तु । इसमें वर्णित धर्मका अन्तिम लक्ष्य संसारी जीवोंको अक्षय. अब प्राचार्य महोदय प्रतिज्ञात धर्मके स्वरूपादिका -सुखकी प्राप्ति कराना है इस लिये प्रकारान्तरसे इसे 'सुख- वर्णन करते हुए लिखते हैंशाच' भी कह सकते हैं। शायद इसीलिये विक्रमकी ११ वी
धर्म-लक्षण शताब्दीके विद्वान् प्राचार्य वादिराजसूरिने, अपने पार्श्वनाथ- सद्दृष्टिज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वग विदुः । चरितमें स्वामी समन्तभद्र योगीन्द्रका स्तवन करते हुए, यदीय-प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥ उनके इस धर्मशानको "अक्षयसुखावहः” विशेषण देकर 'धर्मके अविनायकोंने-धर्मानुष्ठानादि-तत्पर अथवा अक्षय-सुखका भण्डार बतलाया है।
धर्मरूप परिणत प्राप्त-पुरुषोंने-सदृष्टि-सम्यग्दर्शन___कारिकामें दिये हुए 'देशयामि समीचीनं धर्म' इस सज्ञान--सम्यग्ज्ञान-और सज-सम्यक् चारित्रप्रतिज्ञा-वाक्यपरसं प्रन्यका प्रसनी अथवा मूल नाम 'समी- को 'धर्म' कहा है। इनके प्रतिकूल जो असदुद्दष्टि, चोन-धर्मशास्त्र' जान पड़ता है, जिसका प्राशय है 'समीचीन असतज्ञान, अमवृत्त-मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याधर्मकी देशना ( शास्ति ) को लिये हुए ग्रंथ', और इस चारित्र-हैं वे सब भवपद्धति है-संसारके मार्ग है।' लिये यही मुख्य नाम इस सभाष्य ग्रन्धको देना यहां उचित व्याख्या-मूवमें प्रयुक्त भन्' शब्दका सम्बन्ध दृष्टि, समझा गया है, जो कि ग्रंयकी प्रकृतिके मी सर्वथा अनुकूज ज्ञान, वृत्त तीनोंके साथ है और उसका प्रयोग सम्यक, है। दूसरा 'रत्नकर' (रत्नोंका पिटारा) नाम ग्रन्यमें निर्दिष्ट शुद्ध, समीचीन, तथा बीतकलंक (निर्दोष) जैसे अर्थ में हुआ धर्मका रूप रत्नत्रय होनेसे उन रत्नोंके रक्षणोपायभूतके रूप है; जैसा कि श्रद्धानं परमार्थानां, भयाशाम्नेहलोभाच, में है और अन्य के अन्तकी एक कारिकामें 'येन स्वयं वीत- प्रथमानुयोगमा, येन स्वयं वीतकलविद्या, इत्यादि कलविद्या · दृष्टि-क्रिया - रत्नकरण्डभावं नीतः' इस कारिकाश्राम प्रकट है। हिमाऽनृतचार्यभ्यो'स कारिकामे वाक्यके द्वारा उस रत्नत्रय धर्मके साथ अपने प्रारमाको 'संहस्य' पदका 'सं' भी इसी अर्थको लिये हुए है और रत्नकरण्ड' के भावमें परियात करनेका जोवस्तु निर्देशामक इसीके लिये स्वयम्भूम्तोत्रमें 'समझ' जैसे शब्दका प्रयोग १ त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाऽक्षय्यसुखावहः । किया गया है।
अर्थिने भव्य-मार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः ॥ २ "समञ्जस-ज्ञान-विभूति-चतुषा" का. १