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भारतीय इतिहासका जैनयुग
फिरण ७-८ ]
सिद्ध हो चुकी है। वह युग नागयुग था । भगवान पार्श्व का जन्म नागवंश ( उगवंश) में ही हुआ था । उनके अनुयायी तथा भक्तों में भी नागजातिका ही विशेष स्थान था। उनका लबन (चिन्ह विशेष) भी नाग ही था । उन की प्राचीन प्राचीन प्रतिमाएँ नागच्छत्रयुक्त दी मिलती हैं। मदोनो तथा मथुराके पुरातत्वमें अनेक नागकुमार कथा नागकुनारियाँ मोगीराज पार्श्व जिनकी भक्ति करती दीख पड़ती है। भगवान पाश्वके धर्मप्रचार रही सदी वाशिक हिंसा भी समाप्त होगई। पाशिक, देवतावादी वैदिकधर्म तथा अहिंसाप्रधान धारमवारी जैनधर्मके बीच सामन्जस्य और समन्वय बैठाने के प्रयत्न होने लगे । श्रनेक दर्शन तथा मत-मतान्तर पैदा होने लगे ।
ई० पूर्व ७७७ में बिहार प्रान्तके सम्मेद शिखरमे भगवान पार्श्वने निर्वाण लाभ लिया। वह इस जैन युगके द्वितीय युगप्रवर्तक थे ( प्रथम युगप्रवर्तक महाभारतकालीन २२ में तीर्थ अरिष्टनेमि थे) और जैनधर्मके पुनरुदारक थे । उनके प्रचारसे जैनधर्मका प्रसार अधिकाधिक विस्तृत होगया था । किन्तु इस पुनरुद्धार कार्य में वह जैन संघकी पूर्ण सुहृद व्यवस्था न कर पाये थे। उनके पश्चात अनेक नवोदित मत-मतान्तरोंके कारण जैन दार्शनिक सिद्धान्त तथा बाचार-नियम भी अच्छे व्यवस्थित एवं सुनिश्चित रूपमें न रह गये थे। स्वयं उनकी शिष्य परम्परा में बुद्धकीर्ति, मौद्गलायन, मलिगोशाल, केशीपुत्र आदि विद्वानोंमें सैातिक मतभेद होने लगा था, उन विज्ञानने अपने २ मन्तव्यका प्रचार भी स्वतन्त्र धर्मोंके रूपमें करना
Intro to Jaiva Bibbo graphy Dr. Guerinor; Camb. History of India (The History of the Jain) fol I, P. 152160; Intro to Uthradyayan P. 21-Charpenter.
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प्रारम्भ कर दिया था। ऐसे समय में एक अन्य युगप्रवर्तक महापुरुषकी श्रावश्यकता थी। अस्तु, ई० पूर्व ६०० में अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीरका जन्म हुआ । ३० वर्ष
की आयु तक गृहस्थ रहकर १२ वर्ष पर्यन्त उन्होंने दुद्धर तपश्चरण और योगसाधन किया । तदुपरान्त केवलज्ञान (सर्वशाच) को प्राप्त कर नापुस निर्ब्रम्य महावीर जिनेन्द्र ने ३० वर्ष पर्यन्त सर्वत्र देश-देशान्तरोंमें विहार कर धर्मोपदेश दिया। जिस प्रान्त में उनका सर्वाधिक बिहार हुआ यह विहारके ही नामसे प्रसिद्ध होगया। पूर्व २२७ में भगवानने 'पापा' से निर्माण प्राप्त किया ।
उन्होंने मुनि, श्रार्थिका, धावक श्राधिकारूप चतुर्दिक संघकी स्थापना की, आचार नियमोंने संघकी सुध्द व्यवस्था करदी । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं, अपरिग्रह पांच प्रकार व्रतों को यथाशक्य मन, वचन कायसे पालन करते हुए कोषमान मायाक्षोभादि कपायोंका दमन करते हुए. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यम्चारित्ररूप रमत्रयकी प्राप्ति ही श्रक्षय सुखके स्थान मोक्षकी प्राप्तिका मार्ग प्रतिपादन किया। वस्तुस्वरूपके यथार्थ परिज्ञानके हित अनेकान्तात्मक स्यादवाद, आत्मस्वातन्त्र्यके हित साम्यवाद, पुरुषार्थंका महत्व हृदयङ्गत करानेके हित कर्मवाद तथा स्वपर कल्याण के लिये परमावश्यक अहिंसावादका सदुपदेश दिया । उनके उपदेशका प्रभाव सर्वव्यापक दुआ, भावाद श्रीपुरुष, ऊँचनीच ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूह आर्य, चनायें सब ही उनके अनुयायी थे। उनके प्रधान शिष्य ब्रह्मा इन्द्रभूति गौतम आदि गणधरोंने उनके उपदेशित सिद्धान्तोंको द्वादशाहत के रूप में रज्नाक्डू किया और तदुपरान्त विशाल जैनसंघों द्वारा सहस्राब्दियों पर्यन्त इस देशके कोने-कोने में ही नहीं दूसरे प्रदेशोंमें भी भगवान महावीरके कल्याणमयी साधर्मका स्रोत बता रहा है।
(क्रमश:)
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